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प्रवचन-८१ फैक्टरी से मुफ्त सिमेंट देते थे। उन्होंने भी स्वयं अनेक मंदिरों का निर्माण करवाया है। __ यह तो अपने देश की बात है। परदेश के एक उद्योगपति का किस्सा भी सुन लो। __अमरीका का प्रसिद्ध उद्योगपति रोकफेलर एक दिन वाशिंग्टन की एक होटल में गया। उसने होटल के मैनेजर से कहा : 'सस्ते से सस्ते किराये का एक कमरा चाहिए।' __ मैनेजर रोकफेलर को जानता था, उसने कहा : 'सर, आप तो बड़े श्रीमन्त हैं, आपका पुत्र तो यहाँ बड़े ठाठ से रहता है और आप...।' ___ 'ठीक बात कहते हो तुम! उस लड़के का पिता श्रीमन्त है, करोड़पति है, इसलिए उसको ठाठ से रहना जमता होगा; मेरे पिता श्रीमन्त नहीं थे, गरीब थे, इसलिए मुझे ऐसे पैसे का अपव्यय जमता नहीं है।' मैनेजर चुप हो गया!
रोकफेलर जैसा विश्व का श्रेष्ठ श्रीमन्त पैसे का अपव्यय नहीं चाहता था! आप लोग यदि इन बातों को समझें और कुछ सीखें तो जीवन अच्छा बन सकता है। ___ यह बात तो हुई अर्थपुरुषार्थ के विषय में। धन-संपत्ति का अपव्यय नहीं करते हुए सद्व्यय करनेवाला मनुष्य, कामपुरुषार्थ और धर्मपुरुषार्थ को जीवन में यथोचित स्थान दे सकता है। आसक्ति व पुरुषार्थ में फर्क है :
कामपुरुषार्थ को लेकर, 'धर्मबिन्दु' के टीकाकार आचार्यश्री कहते हैं कि अति कामासक्ति नहीं होनी चाहिए। अति विषयलोलुपता विनाश करती है मनुष्य का। मनुष्य इतना जितेन्द्रिय तो होना चाहिए कि अपनी पत्नी के अलावा दूसरी किसी भी स्त्री के प्रति विकारी नहीं बने । अपनी पत्नी में भी ज्यादा कामासक्ति नहीं होनी चाहिए।
अति कामुक पुरुष जब वेश्याओं के पास जाने लगता है अथवा परस्त्री का संग करने लगता है तब वह आर्थिक दृष्टि से, शारीरिक दृष्टि से एवं सामाजिक दृष्टि से गिर जाता है। धन का नाश, शरीर का नाश और इज्जत का नाश होता है। धर्म तो उसके जीवन में रहता ही नहीं। उसके मन में वैषयिक सुख के ही विचार चलते रहते हैं...वहाँ धर्म कैसे रह सकता है?
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