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प्रवचन- ४९
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Piran
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अपने-अपने विषयों में इन्द्रियों को तीव्र आसक्ति नहीं होना उसका नाम है : इन्द्रियविजय । इन्द्रियविजेता हुए बिना मोक्षमार्ग को यात्रा नहीं हो सकती है।
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पद,
पैसा और प्रतिष्ठा को तीव्र लालसा से मुक्त रहो । किसी भी बात का दुराग्रह रखना उचित नहीं है।
● मदोन्मत्त आदमी धर्म-अर्थ और कामपुरुषार्थ का संतुलन नहीं रख सकता है। इन्द्रियविजेता भी नहीं हो सकता है। इस भव में जिस बात का या जिस चीज का अभिमान करोगे वह चीज या वह बात तुम्हें अगले भव में मिलेगी हो नहीं... यदि मिल भी गई तो निम्नस्तर को मिलेगी।
आठों प्रकार के अभिमान का त्याग करना चाहिए। अभिमान एक तरह की आग है, जिसमें सब कुछ जलकर स्वाहा हो जाता है।
प्रवचन : ४९
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महान् श्रुतधर, परम कृपानिधि, आचार्य श्री हरिभद्रसूरीश्वरजी, स्वरचित 'धर्मबिन्दु' ग्रन्थ के प्रारम्भ में गृहस्थ जीवन का सामान्य धर्म बता रहे हैं। पाँचवाँ सामान्य धर्म बता रहे हैं इन्द्रियविजय का ।
आसक्ति में तीव्रता मत लाओ :
अपने-अपने विषयों में इन्द्रियों की तीव्र आसक्ति नहीं होना, यह है इन्द्रियविजय ! गृहस्थ जीवन का पाँचवाँ धर्म! इन्द्रियाँ अपने-अपने विषय ग्रहण तो करेंगी ही, विषयों के प्रति राग भी होगा, परन्तु तीव्र आसक्ति नहीं होनी चाहिए। तीव्र आसक्ति का अभाव तभी संभव हो सकता है, जब आन्तरिक शत्रुओं का त्याग किया हो। आन्तरिक शत्रु पर थोड़ी भी विजय पाई हो । जो मनुष्य आन्तरिक शत्रु पर आंशिक विजय भी पा लेता है वह मनुष्य ही इन्द्रियों पर विजय पा सकता है। विषयों की तीव्र आसक्ति से मुक्त हो सकता है। जो मनुष्य आन्तरिक शत्रु पर विजय नहीं पा सकता है, अथवा आन्तरिक शत्रु पर विजय पाना नहीं चाहता है वह मनुष्य कभी भी इन्द्रियविजेता नहीं बन सकता है । इन्द्रियविजेता हुए बिना, मोक्षमार्ग की यात्रा नहीं हो सकती है । इन्द्रियविजेता