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प्रवचन-५१
___ ३२ सम्यक्दर्शन की नींव : सामान्य धर्म
सभा में से : मनुष्य को निर्भय बनना चाहिए न? इस प्रकार उपद्रवों से डरकर भाग जाना, क्या कायरता नहीं है?
महाराजश्री : मनुष्य को निर्भय बनना चाहिए, यह बात सही है, परन्तु यह बात विशेष रूप से व्यक्तिगत है, समष्टि के लिए नहीं! जहाँ अनेक व्यक्ति का प्रश्न हो वहाँ सलामती का विचार पहले करना चाहिए । हाँ, अचानक उपद्रवसंकट आ जाय, तो भयभीत हुए बिना संकट का सामना करना चाहिए | मौत का भय उपस्थित हो जाय तो भी मानसिक स्वस्थता बनी रहनी चाहिए। परन्तु आपके परिवार में क्या सभी का ऐसा सत्त्व है? सभी में ऐसी निर्भयता है? आप में अकेले में ऐसी निर्भयता हों परन्तु बच्चों में नहीं हों, महिलाओं में नहीं हों, तो आपको सलामती का विचार करना ही चाहिए | वह कायरता नहीं कही जायेगी, परन्तु समय-सूचकता कही जायेगी। यह समय-सूचकता, गृहस्थ जीवन का सामान्य धर्म है! धर्म यानी कर्तव्य! धर्म यानी विशेष धर्म-आराधना का कारणभूत धर्म!
दूसरी बात यह है कि ये सामान्य धर्म जो बताये जा रहे हैं, वे एकदम प्राथमिक भूमिका पर रहे हुए गृहस्थों के लिए बताये जा रहे हैं। अभी सम्यक्दर्शन और देशविरति का धर्म भी प्राप्त नहीं हुआ हो, उस भूमिका में यह सामान्य धर्म है। अपने जीवन के प्रति सजगता, अपने परिवार के प्रति कर्तव्य-भावना, सबकी सुरक्षा का खयाल, यह विशिष्ट मानवीय गुण है। यह गुण तो हर भूमिका पर आवश्यक है। साधु-जीवन में भी यह गुण नितान्त आवश्यक है। इस गुण का बीज, प्रारम्भिक विकास की भूमिका में ही होना चाहिए। आगे-आगे की विकास की भूमिकाओं में यह गुण विकसित होना चाहिए। आचार्य भगवंत श्रद्धेय होते हैं :
भगवान महावीरस्वामी की श्रमण-परम्परा में, 'वज्रस्वामी' नाम के महान प्रभावक आचार्य हो गये। विद्यासिद्ध महापुरूष थे। उनके पास 'आकाशगामिनी' लब्धि थी यानी कि दिव्य शक्ति थी।
एक नगर में अकाल पड़ा। लोगों को खाने के लिए अन्न नहीं मिल रहा था, बड़ी परेशानी थी। वज्रस्वामी उस नगर में पहुँचे। जैनसंघ ने आचार्यदेव से प्रार्थना की - हमें इस संकट से बचाइए। वज्रस्वामीजी ने कहा : 'आप लोग
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