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प्रवचन-७२
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• जीवन के प्रारंभ में आत्मा सर्वप्रथम भोजन-ग्रहण करने
का कार्य करती है। बाद में शरीर, इन्द्रियाँ, मन, भाषा
वगैरह की रचना होती है। 9. जीवन के लिए भोजन है, भोजन के लिए जीवन नहीं है। . सुखी जीवन की परिभाषा : निरोगी तन, निरामय मन, स्पष्ट वचन और श्वासोच्छ्वास का संतुलन। भोजन की आसक्ति, रसनेन्द्रिय की गुलामी जीवन को बरबाद कर देती है! भूख और स्वाद इसका भेद अच्छी तरह समझ लेना। बच्चों को यह सिखाओ कि 'कब खाना...कैसे खाना वगैरह। संस्कारविहीन प्रजा संघ-शासन और समाज की कुछ भी मनाई नहीं कर पाती। .किसी भी चीज की इतनी अधिक आसक्ति नहीं होनी चाहिए
कि रोग आने पर भी उसे हम छोड़ न पायें। रोग और दुश्मन को पैदा ही मत करो, पैदा हो गये तो तुरंत उपाय करो'-यह नीतिवाक्य है।
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प्रवचन : ७२
परम कृपानिधि, महान् श्रुतधर, आचार्यश्री हरिभद्रसूरिजी, स्वरचित 'धर्मबिन्दु' ग्रन्थ के प्रारंभ में, गृहस्थ जीवन के सामान्य धर्मों का प्रतिपादन करते हैं। उन्होंने २०वाँ सामान्य धर्म बताया है, प्रकृति के अनुकूल व उचित काल में भोजन | जीवन के साथ भोजन जुड़ा हुआ है। जन्म होता है मनुष्य का, तब पहला काम वह भोजन का करता है। जन्म होता है तब रोता है बच्चा। क्यों रोता है? उसको भूख होती है। उसको दूध का भोजन मिल जाता है, वह शान्त हो जाता है। भोजन का प्रारम्भ जन्म के साथ ही हो जाता है।
अथवा, जब जीव माँ के पेट में गर्भ के रूप में आता है तब पहला काम वह भोजन का करता है। सर्वप्रथम वह आहार के पुद्गल ग्रहण करता है। बाद में वह शरीर रचना, इन्द्रियों की रचना, श्वासोच्छवास लेने-छोड़ने की रचना,
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