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प्रवचन-७०
२३४ निर्मल होता है और जो आत्मविशुद्धि की साधना में निरत होते हैं-ऐसे अतिथियों की उचित सेवा करनी चाहिए।
आप जानते हैं न कि अपने देश की संस्कृति में, मोक्षमार्ग की आराधना को महत्त्वपूर्ण स्थान मिला हुआ है। जो कोई स्त्री-पुरुष मोक्षमार्ग की आराधना करने के लिए साधुता का स्वीकार कर लेते हैं उनको उच्चतम आदर की दृष्टि से देखा जाता है। उनकी सेवा-भक्ति की जाती है। उनको स्वयं अन्न, वस्त्र और मकान की चिंता करने की नहीं होती हैं | गाँव-गाँव और नगर-नगर के लोग उनको भोजन देते हैं, वस्त्र देते हैं और अल्पकालीन निवास के लिए मकान देते हैं। हृदय के भाव से देते हैं, आदर से देते हैं, आग्रह करके देते हैं। इनको अन्न, वस्त्र और मकान की चिन्ता से मुक्त इसलिए रखा जाता है, चूँकि वे आत्मसाधना में बिना किसी विक्षेप, लीन रह सकते हैं। शास्त्राध्ययन, चिन्तन-मनन और लेखन में सदैव तत्पर रह सकते हैं। साधु-संन्यासी के लिए भिक्षावृत्ति ही शास्त्रविहित है | जैन-परंपरा के अलावा दूसरे धर्मों की परंपराओं में से प्रायः भिक्षावृत्ति निकल गयी है। फिर भी भिक्षावृत्ति से जीनेवाले हैं जरूर। अतिथि-सत्कार ने आत्मा की पहचान दी : __ ऐसे अतिथियों की भोजन से, वस्त्र से, पात्र से सेवा करनी चाहिए। ऐसे अतिथिजनों का समागम महान् पुण्योदय से मिलता है। यदि उनके हृदय के आशीर्वाद मिल जायँ, तो ज्ञानदृष्टि खुल जाय! श्रमण भगवान महावीरस्वामी की आध्यात्मिक-यात्रा का प्रारंभ ऐसे ही एक महान् अतिथि की सेवा से हुआ था....| महावीर तो बाद में....असंख्य वर्षों के बाद बने । जिस जन्म में अन्तःचेतना जगी थी वह जन्म था 'नयसार' नाम के ग्रामपति का | मजदूरों को लेकर वह गया था जंगल में लकड़ी कटवाने के लिए। मध्याह्न के समय जब भोजन तैयार हुआ तब उसने सोचा : 'कोई अतिथि मिल जाय तो उसको भोजन करा कर मैं भोजन करूँ ।' जंगल में वह अतिथि को खोजता है।
आप लोग शायद शहर में भी अतिथि को खोजते नहीं होंगे? भोजन करने से पहले 'अतिथि' की स्मृति भी आती है? हाँ, जिसके हृदय में मोक्षमार्ग की प्रीति होगी, आत्मविशुद्धि की दृष्टि होगी, उसको अतिथियों की स्मृति आयेगी
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