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प्रवचन-७०
२३२ अलग-अलग परंपराओं में अलग-अलग पद्धतियाँ होती है पूजा की। तौर-तरीकों की सत्यता-असत्यता के वाद-विवाद में उलझने के बजाय जिस परंपरा में अपनी आस्था हो, श्रद्धा हो.... प्रज्ञा हो उसके मुताबिक करना चाहिए। अतिथि-सत्कार बड़ा धर्म है। इस धर्म ने ही भगवान महावीर की आत्मा को नयसार के भव में समयक्त्व का बीज दिया। तीर्थंकरत्व की बुनियाद वहीं पर रची गयी थी। • प्रत्येक जगह पर उचित आचरण, उचित कर्तव्य का पालन
एवं समुचित व्यवहार ही जीवन को धर्ममय बना सकता है। परमात्मा के दर्शन-वंदन-पूजन-स्तवन करते करते कभी न कभी तो हृदय का Pin Point खुल जायेगा। • परमात्म-प्रीत का फव्वारा फूटेगा भीतर से! फिर आनन्द
की अनुभूति सहज बनेगी। • सेवा करते समय उपकार करने की भावना को पनपने मत
देना। अपने कर्तव्य पालन को मद्देनजर रखना।
र प्रवचन : ७०
परम कृपानिधि, महान् श्रूतधर, आचार्यश्री हरिभद्रसूरीश्वरजी, स्वरचित 'धर्मबिन्दु' ग्रन्थ में, गृहस्थ जीवन के सामान्य धर्मों का प्रतिपादन करते हुए, उन्नीसवाँ सामान्य धर्म बता रहे हैं - 'देव-अतिथि और दीनजनों की उचित सेवा ।' परंपरा के अनुसार करो :
एक बात काफी स्पष्टता से समझना : ये सामान्य धर्म जो बताये जा रहे हैं, वे सभी मार्गानुसारी मनुष्यों के लिए बताये जा रहें हैं। जैन हो, शिव हो, वैष्णव हो, बौद्ध हो....कोई भी धर्म-परंपरा का हो । यदि वह मार्गानुसारी होगा, यानी मोक्षमार्ग के प्रति अद्वेषी होगा, तो ये सामान्य धर्म उसके जीवन में होंगे, अथवा इन सामान्य धर्मों को जीवन में जीने का प्रयत्न करता होगा। देवपूजा, मनुष्य को अपनी अपनी धर्मपरंपरानुसार करने की है। आप लोग जैन हैं,
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