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प्रवचन-६९
२३० दिया....उग्र तपश्चर्या की। गहरा आत्मध्यान किया। अनेक कष्ट स्वेच्छा से सहन किये । 'कर्म-क्षय' की कठोर साधना में आप धीर और वीर बने....और आप सर्वज्ञ-वीतराग बने ।'
इस प्रकार छद्मस्थ-अवस्था का चिन्तन करके कैवल्य अवस्था का चिन्तन शुरू करना चाहिए।
कैवल्य-अवस्था : 'हे त्रिभुवन गुरु! ज्यों ही आप सर्वज्ञ-वीतराग बने, देवलोक के देव-देवेन्द्र इस धरा पर उतर आये और 'समवसरण' की दिव्य रचना की । आप समवसरण में सिंहासन पर आरूढ़ हुए। अशोक वृक्ष की शीतल छाया.... ऊपर तीन छत्र, पीछे प्रकाशमान भामंडल, दोनों तरफ यक्षों का चामर ढोना.... आकाश में देवों का दुंदुभि-वादन, दिव्य ध्वनि, पुष्पवृष्टि....| कैसा अद्भुत पुण्यप्रकर्ष?
'हे करुणासिन्धु! कैसा आपका केवलज्ञान! कैसी आपकी दिव्य वाणी! जहाँ जहाँ आप पधारते हैं लोगों के रोग दूर हो जाते हैं और देव-देवेन्द्र भी आपकी चरणसेवा करते हैं। विश्व को मोक्षमार्ग का उपदेश देकर परमसुख-परमशान्ति का मार्ग बताया....कितना परम उपकार किया! न राग, न द्वेष.... फिर भी अपार करुणा । हे भगवंत मेरे पर भी करुणा बरसायें....मेरा उद्धार करें।'
रूपातीत-अवस्था : 'हे चिदानन्दरूपी! सभी कर्मों का नाश हुआ.... आप अरूपी बन गये । अनामी बन गये, अजर-अमर बन गये। अब कभी भी आप इस चतुर्गतिमय संसार में जन्म नहीं लेंगे। आप पूर्णानन्दी बन गये....। न कोई रोग, न कोई शोक। न कोई दुःख, न कोई अशान्ति । हे परमात्मन्, मुझ पर भी अनुग्रह करो....मुझे भी अभेदभाव से आपके आत्मस्वरूप में मिला दो। आपकी आत्मज्योति में मेरी आत्मज्योति को मिला दो....।' चैत्यवंदन की क्रिया :
० इस प्रकार अवस्था चिन्तन करने के पश्चात् चैत्यवंदन करने के लिए तत्पर बनें। सर्वप्रथम 'इरियावहिया' सूत्र के ईर्यापथ-प्रतिक्रमण कर, दुपट्टे के आंचल से तीन बार भूमि-प्रमार्जन कर, तीन बार पंचांग-प्रणिपात यानी खमासमण दें।
० चैत्यवंदन के जो सूत्र बोले उसमें अपने मन को जोड़ें। सूत्रों के अर्थ में मन को जोड़ें और परमात्मा की प्रतिमा में मन को जोड़ें। सूत्र-अर्थ और प्रतिमा में मन को जोड़ने का है।
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