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प्रवचन-६९
२२७ प्रभो, मेरी आत्मा में भी गुणों की सुवास प्रगट हो, वैसी कृपा करें ।' ऐसी प्रार्थना करने का है। दुर्गुणों की दुर्गंध से घोर घृणा हो गई होगी तो ही यह प्रार्थना सार्थक बनेगी। दुर्गुण निकाल देने हों और सद्गुण पाने हों तो परमात्मा की धूपपूजा भाव से करें। यह धूपपूजा 'अग्रपूजा' कही जाती है। चूंकि परमात्मा के सामने खड़े होकर धूपपूजा करने की होती है। जैसे धूपपूजा अग्रपूजा है वैसे दीपकपूजा, अक्षतपूजा, नैवेद्यपूजा और फलपूजा भी अग्रपूजा है। पाँचवी पूजा है दीपकपूजा :
दीपक से परमात्मा की पूजा करने की है। दीपक ज्ञान का प्रतीक है। परमात्मा का केवलज्ञान रत्नदीपक समान है। रत्न का प्रकाश जैसे बुझता नहीं हैं वैसे केवलज्ञान कभी जाता नहीं है। दीपकपूजा करते समय हमें परमात्मा से केवलज्ञान की पूर्णज्ञान की याचना करनी है। हमारे भीतर जो अज्ञानता का घोर अन्धकार है, उस अन्धकार को मिटाने की प्रार्थना करनी है। 'हे परमात्मन्, मेरा अज्ञान-अन्धकार मिटा दो और ज्ञान का-सम्यग्ज्ञान का प्रकाश फैला दो, मेरी आत्मा में ज्ञान का रत्नदीप प्रगट करने की कृपा करो....' ऐसी हार्दिक प्रार्थना करने की है। प्रतीक के माध्यम से हमें भावात्मक धर्म की आराधना करने की है। प्रतीकों की सार्थकता इसी में है। प्रतीकों का आयोजन निरर्थक नहीं होता है। जो लोग प्रतीकों की सार्थकता सोच नहीं सकते हैं, समझ नहीं सकते हैं, वे लोग प्रतीकों का अपलाप करते हैं, परन्तु तर्कहीन अपलाप करने से क्या? छट्ठी पूजा है अक्षतपूजा :
'अक्षत' अक्षयपद का प्रतीक माना गया है। अक्षयपद यानी मोक्ष, अक्षयपद यानी निर्वाण | अक्षत से प्रभु के सामने स्वस्तिक बनाया जाता है। स्वस्तिक संसार का प्रतीक हैं। संसार की चार गति है न? देवगति, मनुष्यगति, तिर्यंचगति और नरकगति । स्वस्तिक इन चार गतियों का प्रतीक है। स्वस्तिक बनाकर हम परमात्मा से कहते हैं : 'हे प्रभो, इस चतुर्गतिमय संसार से मुझे मुक्त होना है। आपके अचिन्त्य अनुग्रह से ही मेरी मुक्ति हो सकती है। आपकी आज्ञा के अनुसार मैं सम्यक्दर्शन, ज्ञान और चारित्र्य की आराधना करूँगा....।' इस तीन तत्त्वों की प्रतीक हैं अक्षत की-चावल की तीन ढेरियाँ! जो स्वस्तिक के ऊपर की जाती हैं। मोक्ष का प्रतीक है अर्धचन्द्राकार सिद्धशिला! जो तीन ढेरियों के ऊपर बनायी जाती है। जो अक्षयपद हमें पाना है, उस भावना का आविर्भाव सिद्धशिला बनाकर किया जाता है।
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