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प्रवचन-६९
२२१ कोई कर्म के कटु विपाक। यानी, जो रागरहित और द्वैषरहित होते हैं। वे अंतरंग शत्रुओं के विजेता होते हैं। वे अनंत गुणों के धारक होते हैं। ऐसे देव के भिन्न-भिन्न नाम इस दुनिया में प्रचलित हैं। ___ कोई उनको 'अर्हन्' कहते हैं, कोई 'बुद्ध' कहते हैं, कोई 'शंभु' कहते हैं, कोई 'अनन्त' कहते हैं।
अपनी-अपनी कुल-परंपरा से जो देव का नाम मिला हो, उस देव का नामस्मरण और देवपूजन करना चाहिए | नाम से मतलब नहीं, स्वरूप से मतलब होना चाहिए | राग-द्वेषरहितता, वीतरागता एवं सर्वज्ञता होनी चाहिए देव में । यह बात ऐसे मनुष्यों के लिए है कि जिन्होंने सर्वज्ञ-वीतराग जिनेश्वरदेव का शासन नहीं पाया हो। अतिथि का परिचय :
जो महात्मा लोग सदैव शुभ प्रवृत्ति में एवं पवित्र आचरण में निरत रहते हैं, उनके सभी दिन समान होते हैं। उनके लिए चतुर्थी हो या अष्टमी, नवमी हो या एकादशी, त्रयोदशी हो या चतुर्दशी। सभी दिन समान होते हैं, इसलिए वे अतिथि कहलाते हैं। यहाँ 'तिथि' शब्द से पर्वतिथि समझना। यों तो एकम से पूर्णिमा तक सभी तिथि ही कहलाती हैं। सामान्य तिथि और पर्वतिथि का जिनको भेद नहीं हैं, जो सभी तिथियों में धर्मपरायण रहते हैं-वे अतिथि कहलाते हैं। दूसरे लोग जो कि ऐसे महात्मा नहीं होते हैं और बाहर से आते हैं वे 'अभ्यागत' कहलाते हैं। दीन का परिचय :
संस्कृत भाषा के 'दिङ' धातु से 'दीन' शब्द बना है। 'दिङ' का अर्थ होता है क्षय होना। जिस मनुष्य की शक्ति क्षीण हो गई हो, जो धर्मपुरुषार्थ, अर्थपुरुषार्थ और कामपुरुषार्थ करने में समर्थ न रहा हो, शक्तिमान न रहा हो, वह 'दीन' है। शरीर व्याधिग्रस्त हो गया हो, इन्द्रियाँ शिथिल हो गई हों अथवा अंधापन या विकलता आ गई हो....वे दीन हैं। दुनिया में ऐसे मनुष्य करोड़ से भी ज्यादा हैं। परमात्मपूजा :
'देव प्रतिपत्ति' का अर्थ है परमात्मपूजा | हर गृहस्थ को परमात्मा की पूजा करनी चाहिए। आप लोगों का तो महान् भाग्योदय है कि आपको सर्वज्ञवीतराग तीर्थंकर भगवंत का धर्मशासन मिला है। आपको श्रेष्ठ परमात्मस्वरूप
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