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प्रवचन-५०
१४ जी हाँ, हर्ष-खुशी भी शत्रु है : ___ सभा में से : क्रोध को तो शत्रु मानते हैं, परन्तु हर्ष कैसे शत्रु हो सकता है? तो फिर हम करें क्या?
महाराजश्री : घबराओ मत! हर्ष कब शत्रु बनता है, यह बात समझ लो पहले । हर्ष मित्र भी है, शत्रु भी है। __ अच्छे कार्यों में हर्ष मित्र बनता है, बुरे कार्यों में हर्ष शत्रु बनता है! विद्युत शक्ति जब 'हीटर' से लगती है तो गर्मी देती है और 'कूलर' से लगती है तो शीतलता देती है, वैसा हर्ष का काम है!
आपने दान दिया और हर्ष हुआ, तो हर्ष आपका मित्र बना, परन्तु आपने चोरी की और हर्ष हुआ, तो हर्ष आपका दुश्मन बना! आपने शील का पालन किया और हर्ष हुआ, तो हर्ष आपका मित्र बना, परन्तु आपने दुराचारसेवन किया और हर्ष मनाया, तो हर्ष आपका शत्रु बनेगा । आपने तप किया और हर्ष हुआ, तो हर्ष आपका मित्र बन गया, परन्तु आपने अभक्ष्य खाया, अपेय का पान किया और हर्ष किया, तो वहाँ हर्ष आपका शत्रु बन जायेगा। किसी का दुःख दूर किया और आप हर्ष से नाच उठे, तो हर्ष आपका मित्र बना, परन्तु किसी को आपने दुःख के खड्डे में गिरा दिया और हर्ष से झूम उठे, तो हर्ष आपका दुश्मन बनेगा!
पापकार्य में जब सफलता मिलती है, तब खुश हो जाते हो न? जानते हो कि इससे कैसे प्रगाढ़ पापकर्म बंधते हैं? वे पापकर्म तुम्हारे साथ शत्रुता से पेश आयेंगे | पापाद् दुःखम्! पापों से ही तो दुःख आते हैं। जो अपन को दुःखी करें वह शत्रु । इसलिए पापकार्यों में हर्ष करना बुरा है। ___ सभा में से : तो क्या पापकर्म करने पर खुश नहीं हों तो पापकर्म नहीं बंधते?
महाराजश्री : पापाचरण से पापकर्म बंधते हैं जरूर, परन्तु पापाचरण में खुश होने से 'निकाचित' पापकर्म बंधते हैं। पाप करते समय खुश नहीं होंगे तो जो पापकर्म बंधेगे वे पापकर्म 'वॉशेबल' होंगे। खुश होने से जो पापकर्म बंधेगे वे पापकर्म 'अनवॉशेबल' होंगे। एक उदाहरण से इस बात को समझें : श्रेणिक खुशी फूले और....
भगवान महावीर स्वामी के समय की बात है। उस समय मगधदेश का
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