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प्रवचन- ६७
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में प्रविष्ट हुआ....घातीकर्मों का नाश किया.... रुद्रक भी सर्वज्ञ - वीतराग बन
गया।
जिस प्रकार किसी के अहित का उद्वेगजनक विचार मन में नहीं करना है, वैसे किसी को उद्वेग हो, वैसे वचन भी नहीं बोलने हैं।
सभा में से : ऐसे वचन तो हम रोजाना बोलते रहते हैं । दूसरों की शान्तिअशान्ति का विचार ही नहीं करते.... दूसरों की प्रीति - अप्रीति का भी विचार नहीं करते।
महाराजश्री : इसलिए आप स्वयं अशान्त हैं, उद्विग्न हैं । आप वैसे वचन बोलने बंद कर दो और फिर देखो कि आपको शान्ति मिलती है या नहीं । आप अपनी वाणी पर संयम रखो तो सर्वप्रथम पारिवारिक शान्ति तो हो ही जाये । आप लोग अपने घर में परस्पर किस प्रकार का वाणी - व्यवहार करते हो ? पत्नी के साथ, पुत्र-पुत्री के साथ, भाइयों के साथ, माता-पिता के साथ ....किस प्रकार बोलते हो? उनको उद्वेग हो वैसा नहीं बोलते हो न?
सभा में से : अयोग्य आचरण कोई करता हो, तो बोलना पड़ता है। नहीं बोलें तो गलत काम करते रहें और बोलें तो उद्वेग होता ही है.... तो क्या करना चाहिए?
महाराजश्री : उग्र शब्द सुनाने से गलत काम करनेवाले रुक गये क्या ? सुधर गये क्या ? हाँ, यदि उग्र शब्दों से सामनेवाला सुधर जाता हो तब तो बोलते रहो। उद्वेग पैदा करके भी आत्महित होता हो दूसरे का, तो उद्वेग पैदा कर सकते हो। 'ऑपरेशन' द्वारा दर्दी का दर्द दूर होता हो तो 'ऑपरेशन' करना उचित है। परन्तु जब तक दवाइयों से सुधार होता हो तब तक ‘ऑपरेशन' नहीं करवाते हो न? 'ऑपरेशन' कराने पर भी अच्छा होने की संभावना नहीं हो तो क्या करोगे ? 'ऑपरेशन' नहीं करवाते हो न ? वैसे उग्र शब्दप्रयोग से भी सामनेवाला सुधरनेवाला न हो तो उग्र शब्दों का प्रयोग नहीं करोगे न?
कभी, अनिवार्य संयोगों से उग्र वाणी का प्रयोग करना पड़े तो भी तुरंत ही सामनेवाला व्यक्ति का उद्वेग दूर करने का प्रयत्न करना चाहिए । 'मेरे निमित्त से कोई भी व्यक्ति को उद्वेग नहीं रहना चाहिए ।' यह निर्णय हो जाना चाहिए अपने हृदय में। दूसरों की उद्विग्नता - अशान्ति अपने हृदय को दुःखी कर दे ! यदि अपने निमित्त उनको अशान्ति हुई हो तो ।
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