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________________ Shri Mahavir Jain Aradhana Kendra www.kobatirth.org Acharya Shri Kailassagarsuri Gyanmandir प्रवचन-६७ २०३ सभा में से : हम निरपराधी हैं, फिर भी हम अन्यायों को सहन करते रहें क्या? अन्यायों के सामने लड़ना नहीं चाहिए? मुमुक्ष अपराधी को क्षमा कर देता है : महाराजश्री : एक बात मत भूलो, कारण के बिना कार्य नहीं होता है। अपराध इस जीवन में नहीं किया होगा, पूर्वजन्म में किया होगा। अपने आपको निरपराधी मानने से पूर्व गंभीरता से सोचते रहो। दूसरों के प्रति अन्याय करना नहीं, परन्तु कोई आपके प्रति अन्याय से व्यवहार करे तो रोषायमान मत होना और वैर की भावना मत करना। याद रखें कि आपको मोक्षमार्ग पर चलना है, संसारवास से मुक्त होना है। संसारवास में रहने की इच्छावालों के विचार और संसारवास से मुक्त होने की भावनावालों के विचारों में बड़ा अन्तर होता है। संसारवास के प्रेमी लोग अपराधी को सजा करने की सोचेंगे, संसारवास से विरक्त लोग अपराधी को क्षमा देने की सोचेंगे! दु:ख में हीनभावना नहीं आनी चाहिए, परन्तु अनित्यभावना, एकत्वभावना, अन्यत्वभावना और संसारभावना का चिन्तन करना चाहिए। इन भावनाओं का सतत अभ्यास, केवलज्ञान का असाधारण कारण बन जाता है। अंगर्षि को केवलज्ञान : अंगर्षि प्रशान्त बनते गये। विशुद्धतर भावनाओं में लीन होते गये । उनको 'जाति-स्मरण' ज्ञान प्रकट हो गया। अपने पूर्वजन्म की स्मृति हो आई। पूर्वजन्म में उन्होंने एकत्वादि भावनाओं का चिंतन-मनन बहुत किया हुआ था....वह चिंतन उभर आया और वे धर्मध्यान से शुक्लध्यान में चले गये। उनको केवलज्ञान प्राप्त हो गया। वीतराग बन गये अंगर्षि | सर्वज्ञ-वीतराग बनने का मार्ग मिल गया न? होना है सर्वज्ञ? होना है वीतराग? जिस मार्ग पर चलकर अंगर्षि सर्वज्ञ-वीतराग बने, उस मार्ग पर चलकर अपन भी सर्वज्ञ-वीतराग बन सकते हैं। मन में भी किसी के अहित का विचार नहीं करना चाहिए। अंगर्षि ने मन में भी उपाध्याय के लिए और रूद्रक के लिए बुरा नहीं सोचा । वचन तो बोलने की बात ही नहीं थी। काय से अहित करना असंभव ही था। उन्होंने अपने आपको स्वस्थ रखा, शान्त रखा....और धर्मध्यान में निमग्न बने । सर्वज्ञवीतराग बन गये। For Private And Personal Use Only
SR No.009631
Book TitleDhammam Sarnam Pavajjami Part 3
Original Sutra AuthorN/A
AuthorBhadraguptasuri
PublisherMahavir Jain Aradhana Kendra Koba
Publication Year2010
Total Pages274
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari, Discourse, & Religion
File Size2 MB
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