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प्रवचन-६७
१९९ मिलता है। दूसरों को शान्ति, समता, समाधि दोगे तो आपको भी शान्ति, समता, समाधि मिलेगी। दूसरों को अशान्ति, उद्वेग और संताप दोगे तो आपको भी अशान्ति, उद्वेग और संताप प्राप्त होगा।
यदि आप अशान्त हैं तो उसका कारण आप ही हैं। आप दूसरों को अशान्ति देते होंगे! आप दूसरों के लिए अहितकारी विचार करते होंगे। आप आन्तरिक निरीक्षण करना, आत्म-साक्षी से सोचना। यदि आप उद्विग्न रहते हैं तो उसका कारण आपके अहितकारी विचार हैं, यह बात आपको माननी पड़ेगी।
आपके विचार उद्वेगपूर्ण होंगे तो आपकी वाणी भी दूसरों को उद्वेग करानेवाली होगी, आपका व्यवहार भी उद्वेगजनक होगा | मन-वचन-काया से आप दूसरों को अशान्ति देंगे तो आपको शान्ति मिलनेवाली नहीं है।
पहला प्रश्न तो यह है कि आप स्वयं अपने मन की शान्ति चाहते हैं? आप प्रसन्नता चाहते हैं? आप प्रशान्त भाव चाहते हैं? यदि आप चाहते हैं, सच्चे हृदय से चाहते हैं तो वह प्राप्त करने का सरल उपाय यह है कि आप काया से और वाणी से तो नहीं, मन से भी किसी को अशान्ति न दें। अज्ञानी के प्रति दया रखो :
सभा में से : दूसरे लोग जो कि अपने हों या पराये, हमें अशान्ति देते हैं, हमारे मन को उद्विग्न करते हैं, तब हमसे सहा नहीं जाता है।
महाराजश्री : सहनशीलता को बढ़ाने का प्रयत्न करें। अज्ञानी जीवों की प्रवृत्ति तो वैसी ही रहेगी! आप उनको क्षमा करते रहें। उनको सौम्य भाषा में समझाने का प्रयत्न करें। फिर भी न समझें तो उपेक्षा कर दें उनकी । एक बात समझ लें कि जो स्वयं अशान्त होते हैं, संतप्त होते हैं वे ही दूसरों की अशान्ति पैदा करते हैं। ऐसे जीवों के प्रति करुणा से देखें । 'ये लोग कितने अशान्त हैं, बेचैन हैं, चंचल हैं....? अन्तरात्मा से कितने दुःखी हैं? उनको शान्ति मिले, समता मिले, समाधि प्राप्त हो....।' ऐसे विचार करें।
जो मनुष्य दूसरों की कटुवाणी सुनने पर और अभद्र व्यवहार होने पर अपने आपको स्वस्थ और शान्त रख सकता है, वही मनुष्य दूसरों के लिए मन-वचन-काया से शुभ प्रवृत्ति कर सकता है। इतनी समझदारी तो होनी ही चाहिए। इतना सत्त्व तो होना ही चाहिए |
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