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प्रवचन-६५ स्नेह न हो, जहाँ राग न हो.... वहाँ पर भी उपकार तो हो सकता है। रुद्रसोमा के सन्देश में से यह बात फलित होती है। तीन के ऋण से मुक्त होना अति आवश्यक है :
माता-पिता, स्वामी और गुरु के उपकारों का बदला चुकाना मुश्किल है। यदि उनके उपकार समझें तो बात है। जिनके उपकार अपने पर हों उनके प्रति व्यवहार कैसा हो? उनकी आज्ञा का पालन कैसा हो? ___ बंगाल में आशुतोष मुखर्जी हाइकोर्ट के जज थे और बंगाल युनिवर्सिटी के उपकुलपति थे। उस समय भारत पर अंग्रेज राज्य करते थे। आशुतोष को इंग्लैंड जाने के लिए उनके मित्र आग्रह करते थे, परन्तु आशुतोष विदेश नहीं जाते थे। चूंकि उनकी माता की इच्छा नहीं थी आशुतोष को विदेश भेजने की। एक दिन भारत के गवर्नर-जनरल लार्ड कर्जन ने आशुतोष से कहा : 'तुम अपनी माता से कहो कि गवर्नर-जनरल ने मुझे विदेश जाने की आज्ञा की है।' तो तुम्हारी माता विरोध नहीं करेगी।'
आशुतोष ने कहा : 'मैं अपनी माता को ऐसा नहीं कह सकता, क्योंकि मैं गवर्नर-जनरल की आज्ञा से भी अपनी माता की आज्ञा को विशेष महत्त्व देता
श्री आर्यरक्षित ने राजा के सम्मान से भी ज्यादा महत्त्व माता को दिया था न? माता की इच्छा पूर्ण करने के लिए वे साधु बन गये! दृष्टिवाद के अध्ययन में दिन-रात डूब गये! यह थी श्रेष्ठ मातृपूजा । ___ फल्गुरक्षित उज्जयिनी पहुँच गया। उपाश्रय में गया। उसने सर्वप्रथम आर्यरक्षित को श्रमणरूप में देखा । आर्यरक्षित के चरणों में लेट गया.... आँखें आँसू बहाने लगीं। आर्यरक्षित ने फल्गुरक्षित को उठाया। 'कहो, किस प्रयोजन से यहाँ आना हुआ?' 'माता का सन्देश लेकर आया हूँ।' 'माता का सन्देश? कहो, क्या आज्ञा है माता की?'
'माँ आपको शीघ्र दशपुर बुला रही है। आपके विरह से वह व्याकुल है....।' फल्गुरक्षित रो पड़ा। रोते-रोते उसने माता का सन्देश सुनाया। आर्यरक्षित शान्त चित्त से आँखें मूंदकर सन्देश सुनते रहे | कुछ क्षण सोचते रहे और बोले : 'फल्गु! जो शाश्वत् नहीं है....उससे क्या मोह करना? संसार
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