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प्रवचन-६५
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वापस उसको दे दें। यह वस्तु तो तुम्हारे काम की है, हमें क्या करनी है? तुम इसका उपयोग करना....।' __ माता-पिता के पास जब कोई अच्छी-श्रेष्ठ वस्तु आये, वे सन्तानों को देते हैं! घर में जो छोटे हों उनको देनी चाहिए। राजगृही में जब नेपाल का व्यापारी १६ रत्नकंबल लेकर आया था, मगधसम्राट श्रेणिक ने एक भी रत्नकंबल खरीदी नहीं और वह निराश होकर जा रहा था, तब शालिभद्र की माता भद्रा ने उसको बुलवाकर १६ रत्नकंबल खरीद लिये थे और १६ कंबलों के ३२ टुकड़े करके अपनी ३२ पुत्रवधुओं को दे दिया था न? अपने लिए एक टुकड़ा भी नहीं रखा था न? यह थी भद्रामाता की उदारता! __ वैसे, जब लड़के बड़े हो जायें और माता-पिता निवृत्त हो जायें तब जो कोई अच्छी वस्तु प्राप्त हो, सर्वप्रथम माता-पिता को देनी चाहिए। कर्तव्यपालन से अनेक दुःखों का अंत : ___ चौथा प्रमुख कर्तव्य - यह है कि हर वस्तु का उपभोग माता-पिता कर लें, बाद में दूसरे करें। हाँ, माता-पिता को व्रत-नियम हो और जिन वस्तुओं का वे भोगोपभोग करते ही न हों, उन वस्तुओं का उपभोग परिवारवाले पहले भी कर सकते हैं | ऐसा करने से माता-पिता का मन संतुष्ट रहता है। माता-पिता के मन को प्रसन्न और संतुष्ट रखना, सन्तानों का परम कर्तव्य है। आज इस कर्तव्य को सन्ताने भूल गई हैं। पूज्यों के प्रति अपने कर्तव्यों को भूलकर कौन सुखी होता है? कौन शान्ति पाता है? अपने-अपने कर्तव्यों का पालन यदि लोग करते रहें तो बहुत से दुःख दूर हो सकते हैं। क्लेश, सन्ताप और झगड़े दूर हो सकते हैं।
कितनी सुन्दर और निरापद जीवनपद्धति बताई है ज्ञानीपुरुषों ने? इस पारिवारिक जीवनपद्धति को स्वीकार कर लिया जाय तो क्या नुकसान है? यदि सुख-शान्ति और प्रसन्नता पानी है तो इस जीवनपद्धति को स्वीकार करना ही होगा। सेवा, त्याग, सहनशीलता, समर्पण इत्यादि गुणों का विकास ऐसी जीवनपद्धति में ही संभव है।
सभा में से : माता-पिता के प्रति आदरभाव कुछ समय तक तो रहता है। महाराजश्री : कब तक रहता है? एक महर्षि ने कहा है -
आस्तन्यपानाज्जननी पशुनामादारलाभावधि चाधमानाम । आगेहकर्मावधि मध्यमानामाजीवितात्तीर्थमिवोत्तमानाम् ।।
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