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प्रवचन- ६४
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किस काम की ? साधु बननेवाला आस्तिक होना ही चाहिए। श्रद्धा के बल से वह कठोर श्रमण जीवन की आराधना सहजता से कर सकता है।
● मृदुता :
आचार्यदेव ने आर्यरक्षित के हृदय को मृदु- कोमल देखा ! सभी गुणों की आधारशिला है हृदय की मृदुता ! स्वभाव की मृदुता ! 'प्रशमरति' में भगवान उमास्वातीजी ने कहा :
'विनयायत्ताश्च गुणाः सर्वे, विनयश्च मार्दवायत्तः । '
सभी गुण विनय के अधीन हैं, विनय मृदुता के अधीन है।
मृदु- दु-कोमल हृदय दूसरों का दुःख देखकर दुःखी होगा । मृदु हृदय की वाणी कोमल-विनम्र रहेगी । मृदु हृदयवाले शिष्य का गुरु अच्छा संस्करण कर सकते हैं। मृदु हृदय और मृदु स्वभाव व्यक्ति को सर्वजनप्रिय बनाते हैं।
● सदाचार :
साधुजीवन की आराधना करनेवाले व्यक्ति को सदाचारी तो होना ही चाहिए। हिंसा, चोरी, जुआ, व्यभिचार जैसे पाप उन व्यक्ति में नहीं होने चाहिए। उस व्यक्ति का मन सदाचार- प्रिय होना चाहिए। सदाचारी मनुष्य साधुजीवन की श्रेष्ठ आराधना कर सकता है । सदाचारी का मन निराकुल रहता है। आचार्यदेव ने आर्यरक्षित को सदाचारी देखा। विशिष्ट ज्ञानी महापुरुष थे वे। ज्ञानदृष्टि से व्यक्ति को परखने की उनमें क्षमता थी। उन्होंने आर्यरक्षित में जिनशासन की महान प्रभावकता देखी । 'दृष्टिवाद' का अध्ययन करने की योग्यता और क्षमता देखी आर्यरक्षित में। उन्होंने दे दी दीक्षा और आर्यरक्षित के कहे अनुसार वहाँ से विहार भी कर दिया ।
आर्यरक्षित ने आचार्यदेव को कितनी अच्छी बातें कही थीं? दो बातें बड़ी ही सुन्दर कही :
१. अबुधस्वजनानां च ममकारो हि दुस्त्यजः।
२. मा भूच्छासनलाघवम् ।
जो स्नेही-स्वजन अबुध होते हैं, अज्ञानी होते हैं, उनका ममत्व प्रगाढ़ होता है। उनकी ममता शीघ्र दूर नहीं होती। कभी तो ममता द्वेष में परिवर्तित हो जाती है। महामुनि कोशल की कहानी आप जानते हो न ? सुकोशल की माता का सुकोशल पर अति ममत्व था । सुकोशल दीक्षा ले, यह वह नहीं
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