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प्रवचन- ६४
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आर्यरक्षित ने जितनी विधि ढढ्ढर श्रावक को देखकर सीखी थी उतनी तो की, परन्तु जो विधि ढढ्ढर ने नहीं की थी यानी करने की आवश्यकता नहीं थी, वह विधि आर्यरक्षित ने नहीं की.... कि जो उनके लिए करनी आवश्यक थी ।
उपाश्रय में उपस्थित श्रावकों को भी वंदन करना चाहिए :
सभी साधुओं को वंदन करने के बाद यदि वहाँ श्रावक उपस्थित हों तो श्रावकों को भी प्रणाम करना चाहिए। जिस समय ढढ्ढर उपाश्रय में गया था उस समय उपाश्रय में कोई श्रावक नहीं था, इसलिए वह किसको प्रणाम करे? परन्तु आर्यरक्षित उपाश्रय में गये जब वहाँ ढढ्ढर श्रावक उपस्थित था। परन्तु आर्यरक्षित तो अनजान थे, उन्होंने ढढ्ढर को प्रणाम नहीं किया । इसलिए आचार्यदेव ने सोचा कि 'यह श्रावक नया है ।' उन्होंने मधुर वाणी में पूछा : 'वत्स, तुमने किससे धर्म पाया है?'
आर्यरक्षित ने ढढ्ढर की ओर अंगुलीनिर्देश करते हुए कहा : 'इस धार्मिक पुरुष से । '
एक मुनि ने वहाँ आकर आचार्यदेव से कहा : 'हे पूज्य, कल नगर में राजा ने बड़ी धूमधाम से जिसका नगरप्रवेश करवाया वही पुरोहितपुत्र आर्यरक्षित है यह। सुश्राविका रुद्रसोमा का यह सुपुत्र श्रेष्ठ गुणों का निधि है, चार वेदों का ज्ञाता है....। यहाँ किस प्रयोजन से आया है, यह तो मैं नहीं जानता.... पर इन्हें जरूर जानता हूँ।'
तुरंत ही आर्यरक्षित ने कहा : 'गुरुदेव, मेरी माता ने मुझे आपके पास भेजा है। माता ने कहा है कि 'तू जैनाचार्य श्री तोसलीपुत्र के पास जा वे महाज्ञानी महात्मा हैं, वे तुझे 'दृष्टिवाद' पढ़ायेंगे।' मैं आपके चरणों में 'दृष्टिवाद' का अध्ययन करने उपस्थित हुआ हूँ ।'
आचार्यदेव आर्यरक्षित के विषय में सोचते हैं : 'यह कुलीन है, आस्तिक ब्राह्मण है, सदाचारी है, इसकी वाणी में मृदुता है .... इसको देखते ही मुझे स्नेह होता है।'
तोसलीपुत्र आचार्य श्रुतधर महापुरुष थे। वे आत्मध्यान में लीन बने । उन्होंने आर्यरक्षित का भव्य व्यक्तित्व देखा । जिनशासन के महान् प्रभावक का रूप देखा। आर्य वज्रस्वामी के बाद यह जिनशासन का युगप्रधान आचार्य बनेगा....।' वे जाग्रत हुए । आर्यरक्षित के सामने देखा और बोले :
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