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प्रवचन-६३
१६३ __ अब आप लोग समझ पाये क्या, कि रुद्रसोमा अपने विद्वान पुत्र को कहाँ और किसलिए भेज रही है? माता की क्या तमन्ना होगी पुत्र से? 'मेरा पुत्र जैन-श्रमण बनेगा और दृष्टिवाद का अध्ययन कर महान ज्ञानी बनेगा | मोक्षमार्ग का ज्ञान पायेगा। विश्व के जीवों को ज्ञान का प्रकाश देनेवाला दीपक बनेगा।'
रुद्रसोमा यदि भौतिक सुखों की अभिलाषावाली होती तो? हालाँकि वह स्वयं संसार में थी....परन्तु उसका मन संसार में नहीं था। राजपुरोहित की वैभवसंपन्न पत्नी थी....फिर भी उसका मन वैषयिक सुखों से विरक्त था। हाँ, वैराग्य तो चाहिए ही। मन विरागी चाहिए | अनासक्ति में ही सच्चा सुख :
सभा में से : हम लोग तो संसारी हैं, संसारी विरागी कैसे हो सकता है? महाराजश्री : संसार में रहते हुए भी विरागी बनकर रहना है। संसार के सुखों का उपभोग करते हुए भी मन को अलिप्त रखा जा सकता है। आप लोगों के पास तो वैसा विशिष्ट वैभव भी नहीं है जो चक्रवर्तियों के पास और राजा-महाराजाओं के पास होता था। वैसे चक्रवर्ती अनेक राजा हो गये, वैसे धनाढ्य श्रेष्ठि हो गये, कि जो बाहर से भोगी थे, भीतर से योगी थे। भीतर से विरागी थे। यदि सम्यक्ज्ञान हो, तो ही ऐसी स्थिति का निर्माण हो सकता है। रुद्रसोमा के पास सम्यकज्ञान था....संसार की वास्तविकता का बोध था....इसलिए वह संसार के सुखों में अनासक्त रह सकी थी। संतानों को भी वह अनासक्त बनाना चाहती थी। 'अनासक्ति में ही सच्चा सुख है, यह सत्य उसने पा लिया था। ज्ञान और अनुभव से उसने सत्य को पाया था।
युवान और विद्वान पुत्र को, अवसर पाकर रुद्रसोमा ने सच्चा मार्ग बता दिया । पुत्र के हृदय में माता ने प्रेम को अखंड रखा था....तभी वह सच्चा मार्ग बता सकी और पुत्र ने उसकी बात मान भी ली।
मैं आप लोगों को बार-बार कहता हूँ कि आप परिवार के साथ वैसा व्यवहार रखो कि उन लोगों का आपके प्रति प्रेम बना रहे । यदि उनका प्रेम बना रहेगा तो एक दिन वे लोग आपकी अच्छी बात मानेंगे और सही रास्ते पर चलने लगेंगे | आप अधीर न बनें, आप कटुभाषी न बनें | आप दूसरों को अप्रिय न बनें। आपकी इच्छानुसार परिवार नहीं चलता हो तो भी समता रखें। अवसर पाकर ही उनको मीठी जबान से जो कहना हो वह कहें।
दूसरी भी एक बात सुन लो।
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