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प्रवचन-६२
१४४ 1. मनुष्यजन्म महान् है, तो फिर मनुष्य को जन्म देनेवाले
महान् क्यों नहीं? इस महानता की अनुभूति संतान तभी कर पाते हैं जब माँ-बाप प्यार से उनका पालन-पोषण करते हैं और उन्हें संस्कारों का दान देते हैं। माता-पिता में ज्यादा नहीं तो चार गुण तो चाहिए ही। पहला गुण है सहनशीलता, दूसरा गुण है स्नेहशीलता, तीसरा गुण
है उदारता और चौथा गुण है गंभीरता। • जिस बच्चे को माँ का दूध नहीं मिलता, पिता का प्यार नहीं मिलता, संस्कारों की परंपरा नहीं मिलती...वह बच्चा बड़ा होकर क्या खाक माता-पिता को पूजनीय समझेगा? नहीं...वह
मान ही नहीं सकता! • जो माता-पिता सच्चे अर्थों में गुणवान होते हैं, बुद्धिमान होते हैं....वे अपने संतानों के जीवनवन को किस कदर धर्म का सुहावना उपवन बना सकते हैं....यह जानने के लिए रुद्रसोमा और सोमदेव की ऐतिहासिक कहानी सुनिए....मैं आपको वह सुना रहा हूँ!
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प्रवचन : ६२
परम कृपानिधि, महान् श्रुतधर, आचार्य श्री हरिभद्रसूरिजी, स्वरचित 'धर्मबिन्दु' ग्रन्थ के प्रारंभ में गृहस्थजीवन के सामान्य धर्मों का प्रतिपादन करते हैं | मनुष्य को प्रसन्न और पवित्र जीवन जीने का सुन्दर मार्गदर्शन देते हैं। यदि इस मार्गदर्शन के अनुसार जीवन जीया जायँ तो अवश्य मनुष्य के जीवन में प्रसन्नता और पवित्रता आये बिना नहीं रहे। परन्तु इस प्रकार का जीवन तभी जीया जा सकता है जब आपका निर्णय हो कि 'मुझे प्रसन्नतापूर्ण और पवित्रतापूर्ण जीवन जीना है।' ऐसा दृढ़ निर्धार होना चाहिए।
धर्मक्रिया कर लेना एक बात है, जीवनपद्धति में परिवर्तन करना दूसरी बात है। आप छोटी-बड़ी धर्मक्रियाएँ तो करते होंगे, परन्तु जीवनपद्धति में परिवर्तन किया है? जीवन के कार्यकलापों में इन सामान्य धर्मों को स्थान दिया है? नहीं दिया है न? क्यों? क्योंकि आप सुनते तो हैं परन्तु सोचते नहीं हो, कुछ सोचते होंगे, परन्तु परिवर्तन करने का साहस नहीं होगा। दुनिया के लोगों को देखते हो और उसी अनुसार जीते हो! इसलिए शान्ति, समता, प्रसन्नता और पवित्रता नहीं आती है जीवन में!
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