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प्रवचन-६०
अवर्णवाद में तो, व्यक्ति के अप्रसिद्ध दोष का प्रकाशन होता है, परन्तु इस आदत से, आगे बढ़कर मिथ्या-कल्पित दोषों का भी आरोपण किया जाता है | अवर्णवाद के मूल में यही वृत्ति काम करती है : दूसरे को गिराने की। इस वृत्ति से प्रेरित व्यक्ति क्या नहीं करता? वह निन्दा करेगा, अवर्णवाद करेगा....मिथ्या दोषारोपण भी करेगा। षड्यंत्र भी रच सकता है।
सभा में से : लोग तो उपकारी गुरुजनों का अवर्णवाद भी करते हैं।
महाराजश्री : लोग मत कहो, 'भगत' कहो । गुरुजनों के दोष दूसरे लोग नहीं देखते हैं, 'भक्त' कहलाने वाले ही देखते हैं। जब तक गुरुजन उन भक्तों को खुश करते रहेंगे तब तक वे भक्त गुरु की प्रशंसा करते रहेंगे, परन्तु ज्यों ही गुरु ने भक्त को नाराज किया, कि वही भक्त गुरु का अवर्णवाद करना शुरू कर देगा। उपाश्रय या धर्मस्थानक में आनेवाले कुछ अज्ञानी और क्रियाजड़ लोग साधुपुरुषों के छिद्र....दोष देखने में ही रुचि रखते हैं। ऐसे भक्तों से क्या कहना? :
एक साधु-मुनिराज ने मुझे बताया था कि वे एक छोटे शहर में गये थे। मध्याह्न दो-तीन बजे का समय था । दो भक्त सामायिक करने उपाश्रय में आये
और सामायिक लेकर माला फेरने लगे। हाथ में माला थी और आँखें साधुओं के प्रति थी, उनके सामान के प्रति थी। इतने में बाहर से एक महिला की आवाज आयी : 'महाराज साब, हम उपाश्रय में आ सकती हैं?' उपाश्रय में दो पुरुष बैठे हुए ही थे इसलिए मुनिराज ने भीतर आने की अनुमति दे दी। दो महिलाएँ भीतर आयी, मुनिराज को वंदना कर बैठी। मुनिराज उनसे बातें करते रहे | वे दो भक्त सामायिक पूर्ण कर चले गये और ये दो महिला भी चली गई।
वे दो भक्त उपाश्रय से बाहर निकले और निन्दा शुरू कर दी उन मुनिराजों की। शाम को प्रतिक्रमण के समय जब उपाश्रय में १५-२० भक्त इकट्ठे हो गये तब बस, चर्चा मुनिराज की ही । मुनिराज विचक्षण थे, वे समझ गये थे बात को। प्रतिक्रमण के बाद जब दो भक्त आकर मुनिराज के पास बैठे और पूछा :
'आज दोपहर को कोई मेहमान आये थे यहाँ?' 'हाँ, एक मेरी जननी थी और दूसरी मेरी भगिनी थी।'
तब वे दोनों चकरा गये और एक-दूसरे का मुँह ताकने लगे। ऐसे होते हैं भक्त लोग! छिद्रान्वेषण करना भक्त का लक्षण बन गया है आज | मातापिता का अवर्णवाद करनेवाला गुरुजनों का अवर्णवाद भी करेगा ही।
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