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प्रवचन-५८
१०२ खर्च करनेवाले जब दिवाला निकालते हैं तब धर्म की काफी निन्दा होती है। लोगों की धर्मश्रद्धा डगमगा जाती है। सच्चे धार्मिकों के ऊपर भी विश्वास टिकता नहीं। यह प्रत्याघात छोटा नहीं है, बहुत बड़ा प्रत्याघात है।
चार भागवाली यह व्यय-व्यवस्था आपको पसन्द आयी होगी? यदि आपको व्यवसाय में नये रुपये नहीं जोड़ने हैं, पर्याप्त 'इन्वेस्टमेंट' किया हुआ है तो तीन भाग कर सकते हो। यदि आपके पास लाखों रुपयों का बैंक बेलेंस है और बचत करने की आवश्यकता नहीं है तो, कुटुम्ब-परिवार के लिए जितने रुपये आवश्यक हों उतने रख कर, शेष रुपयों का धार्मिक ट्रस्ट - 'रिलिजीयस ट्रस्ट' बना दो! प्राइवेट ट्रस्ट भी हो सकता है। सरकार उन रुपयों पर 'टैक्स' भी नहीं लेती है। प्रतिवर्ष उस ट्रस्ट में रुपये जोड़ते रहो और अच्छे कार्यों में खर्च करते रहो। ____ जो बड़े श्रीमन्त हैं, जो उद्योगपति हैं उनके लिए 'चेरिटेबल एन्ड रिलिजीयस ट्रस्ट' की व्यवस्था बहुत अच्छी है। विदेशों में तो अनेक उद्योगपतियों ने ऐसे ट्रस्ट बनाये हैं। भारत में भी अब श्रीमन्त लोग ऐसे ट्रस्ट बनाते जा रहे हैं। आपका ट्रस्ट और आप ही ट्रस्टी! आपके परिवार में से भी ट्रस्टी बनाये जा सकते हैं। व्यय-व्यवस्था का एक दूसरा विधान भी प्राप्त होता है :
‘आयादूर्ध्वं नियुंजीत धर्मे समधिकं ततः।
शेषेण शेषं कुर्वीत यत्नतस्तुच्छमैहिकम् ।।' 'आय के दो भाग करना, उसमें एक भाग धर्म में व्यय करना और एक भाग इहलौकिक तुच्छ कार्यों में व्यय करना। परन्तु धर्म का भाग कुछ बड़ा रखना।'
यह व्यवस्था भी ठीक ही है | इन्कम के दो ही भाग करने के हैं। एक भाग कुछ बड़ा, दूसरा भाग कुछ छोटा! बड़ा भाग धर्मकार्य में व्यय करने का और कुछ छोटा भाग संसार के कार्यों में खर्च करने का। यदि धर्मकार्य में ज्यादा खर्च नहीं करना हो तो दो भाग समान करना! ठीक है न? जो कुछ भी करो, आय के अनुसार करना। आय से व्यय बढ़ाना मत। यदि व्यय बढ़ाओगे तो मरने के दिन आ जायेंगे! यह ग्यारहवाँ सामान्य धर्म है। आप इसका समुचित पालन करनेवाले बनें, यही मंगल कामना ।
आज बस, इतना ही।
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