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श्रीक्षमाकल्याणजी का जन्म ओशवंश के मालुगोत्र में केसरदेसर नाम के गाँव में संवत् १८०१ में हुआ था। सं. १८१२ में अपनी ११ वर्ष की उम्र में ही उन्होंने आचार्य श्रीअमृतधर्मजी से दीक्षा ग्रहण की । श्री क्षमाकल्याणजी के दो विद्यागुरु थे, म. म. श्रीरत्नसोमजी तथा उपाध्याय श्रीरामविजयजी । इनके अनेक शिष्यों में से दो प्रधान शिष्यों के दो अलग भण्डार बिकानेर में हैं। अपने जीवनकाल में उनके विहार का अधिक समय बिहारप्रान्त के पटना आदि स्थलों में काफी बीता है । वि. सं. १८७२ में कालधर्म को प्राप्त हुवे । इनका विस्तृत जीवनचरित्र 'श्रीक्षमाकल्याणचरित' नाम के ग्रन्थ में है। इसकी रचना जोधपुर महाराजा के निजी पुस्तकभण्डार के उपाध्यक्ष पं. श्रीनित्यानन्दजी ने की है । सुन्दर संस्कृत श्लोको में श्री क्षमाकल्याणजी का पूर्ण जीवनवृत्तान्त दिया गया है। श्रीक्षमाकल्याणजी के पट्टशिष्यों की परम्परा में श्रीसागरजी महाराज इस समय बिकानेर में हैं ।
तर्कसंग्रह-फक्किका के अलावा इनकी और २६ कृतियाँ भी है। इनमें मुक्तावलीफक्किका का भी नाम है । यह सूचीपत्र सं. १८९० में उनके किसी शिष्य ने बनाया है । इस सूचीपत्र में निर्दिष्ट सभी कृतियाँ अभी उपलब्ध हैं सिवा मुक्तावली - फक्किका । बिकानेर के या अन्य किसी स्थल के किसी भी ज्ञानभण्डार में मुक्तावली - फक्किका उपलब्ध नहीं है । इतनी जलदी ऐसी कृतिका नष्ट हो जाना सम्भव नहीं है। अधिक सम्भव यही है कि मुक्तावली - फक्किका का नाम गलती से सूचीपत्र में समाविष्ट किया गया हो ।
श्रीक्षमाकल्याणजी की तर्कसंग्रह - फक्किका श्री अन्नंभट्टजी के तर्कसंग्रह की स्वोपज्ञ 'दीपिका' टीका की एक सरल टीका है । मूल तर्कसंग्रह के ऊपर और दीपिका के ऊपर भी अनेक टीकायें लिखी गई हैं जिनका सूचीपत्र परिशिष्ट 'अ' में दिया गया है।
दीपिका की प्रकाशित टीकाओ में श्रीनीलकण्ठशास्त्री की नीलकण्ठी अधिक प्रसिद्ध है । फक्किका अभीतक प्रकाशित न होने से अप्रसिद्ध है, परन्तु करीब प्रत्येक ज्ञानभण्डार में तथा राजकीय हस्तलिखित पुस्तकों के संग्रहों में फक्किका की प्रति उपलब्ध होती है, इससे प्रतीत होता है कि
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अभ्यासियों में फक्किका भी कम प्रचलित नहीं थी। जैन ज्ञानभण्डारों की प्रतियाँ देखने से पता चलता है कि प्रायः सभी जैन अभ्यासी तर्कसंग्रह का अभ्यास फक्किकाकी सहायता से करते थे इसका कारण फक्किकाकारकी पदार्थ को समझाने की शैली है।
फक्किका को पढ़ने से तुरन्त प्रतीत होता है कि तर्कसंग्रह - दीपिका के हृदय को फक्किकाकारने अत्यन्त सरल रीति से खोल करके अभ्यासियों के सामने रख दिया है। नव्यन्यायपरिप्लुत चर्चाओं में निरर्थक घसीटे बिना जिस तरह तर्कसंग्रहकार और दीपिकाकार ने प्राथमिक अभ्यासियों के सामने न्यायवैशेषिक के पदार्थ और सिद्धान्तों को सरल और विशद रूप से रक्खा है उसी पद्धति का आश्रय फक्किकाकार ने भी लिया है और दीपिका को अत्यन्त सरलता से विशद करने का पूर्ण प्रयत्न किया है। आरम्भ में मङ्गलवाद के प्रथम वाक्य को पढ़ने से शायद किसी अभ्यासी को ऐसा लगे कि यह टीका भी और टीका की भाँति मूलग्रन्थ से कठिन होगी, परन्तु आगे बढ़ते ही यह धारणा दूर हो जाती है। फक्किकाकार जैन सम्प्रदाय के होते हुवे भी उन्होंने जो शिष्ट का लक्षण मङ्गलवाद में दिया है और उसका जो पदकृत्य भी किया है वह कर्ता की सिद्धान्तविषयक प्रामाणिकता का द्योतक है। दीपिकाकार ने जो लक्षण दिये हैं और स्वयं भी जो लक्षण देते हैं उन सभी लक्षणों का पदकृत्य फक्किकाकार ने काव्य की खण्डान्वयपद्धति का अनुसरण करते हुवे किया है। इस कारण से फक्किकाकारने तर्कसंग्रह और दीपिका को समझाने में काफी सफलता प्राप्त की है। फक्किकाकार की इस शैली के कारण फक्किका की भाषा में नव्य न्याय की थोड़ी सी छांट होने पर भी यह टीका विद्यार्थी को समझने में कठिन नहीं लगती है इतना ही नहीं किन्तु नव्यन्याय में विद्यार्थी का सहज प्रवेश भी करा देती है ।
तर्कसंग्रहकार ने मूल में अचर्चित जिन विषयों की दीपिका में चर्चा की है उन विषयों को फक्किकाकार ने भी दीपिका के आशयानुसार अच्छी तरह समझाया है । उदाहरणार्थ मङ्गलवाद, पदार्थसंख्याविचार, लक्षण का लक्षण इत्यादि है । उसी तरह दीपिकाकार के प्रामाण्यविचार, विधिनिरूपण जैसे