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(तत्त्वार्थ सूत्र
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अध्याय -D
(तत्वार्थ सूत्र ************अध्याय-D वर्ष है ॥३६॥ भवनवासी की जधन्य आयु कहते हैं -
भवनेषु च ॥३७|| अर्थ- भवनवासी देवों की जधन्य स्थिति दस हजार वर्ष की है ॥३७॥ व्यन्तरों की भी जधन्य आयु कहते है
व्यन्तराणां च ||३८| अर्थ-व्यन्तर देवों की भी जधन्य आयु दस हजार वर्ष है ॥३८॥ व्यन्तरों की उत्कृष्ट आयु भी कहते हैं
परापल्योपममधिकम् ||३९|| अर्थ-व्यन्तरों की उत्कृष्ट आयु एक पल्य से कुछ अधिक है ॥३९॥ ज्योतिषी देवों की उत्कृष्ट आयु कहते हैं -
ज्योतिष्काणां च ||४|| अर्थ-ज्योतिष्क देवों की उत्कृष्ट आयु एकपल्य से कुछ अधिक है॥४०॥ ज्योतिषी देवों की जघन्य आयु भी कहते हैं
__ तदष्टभागोऽपरा ||४|| अर्थ-ज्योतिषी देवों की जधन्य आयु एक पल्य के आठवें भाग है ॥४१॥
अन्त में लौकान्तिक देवों की आयु कहते हैं - लोकान्तिकानामष्टौ सागरोपमाणि सर्वेषाम् ||४||
अर्थ- सब लौकान्तिक देवो की आयु आठ सागर है । ये सब शुक्ल लेश्या वाले होते हैं और इनके शरीर की ऊँचाई पाँच हाथ होती है ॥४२॥
इति तत्वार्थाधिगमे मोक्षशास्त्रे चतुर्थोऽध्याय: ॥४॥ * **** *****4 97 ***** ****
पंचम अध्याय सम्यग्दर्शन के विषयभूत जीव आदि सात तत्वों मे से जीव तत्व का कथन हो चुका । इस अध्याय में अजीव तत्व का कथन है।
अत: अजीव के भेद गिनाते हैंअजीवकाया धर्माधर्माकाश-पुद्गला: ||१||
अर्थ- धर्म, अधर्म, आकाश और पुद्गल ये चार अजीव हैं और काय हैं।
विशेषार्थ-वैसे द्रव्य तो छह हैं। उनमें पाँच द्रव्य अजीव हैं। केवल एक द्रव्य जीव है । तथा छह द्रव्यों में पाँच द्रव्य अस्तिकाय हैं और एक काल द्रव्य अस्तिकाय नहीं है। अतः जीव द्रव्य कायरूप है किन्तु अजीव नही हैं और काल द्रव्य अजीव है किन्तु कायरूप नहीं है। इसलिए जीव और काल के सिवा शेष चार द्रव्य ही ऐसे हैं जो अजीव भी हैं और काय भी हैं। जिस द्रव्य में चैतन्य नहीं पाया जाता उसे अजीव कहते हैं और जो बहु प्रदेशी होता है उसे काय कहते हैं। ऐसे द्रव्य चार ही हैं-धर्म, अधर्म, आकाश और पुद्गल । गमन करते हुए जीव और पुद्गलों को जो गमन मे सहायक होता है उसे धर्म द्रव्य कहते हैं । ठहरते हुए जीव और पुद्गलों को जो ठहराने में सहायक होता है उसे अधर्म द्रव्य कहते हैं। समस्त द्रव्यों को अवकाश देने में सहायक द्रव्य को आकाश कहते हैं । और जिसमे रूप, रस, गध और स्पर्श गुण पाये जाते हैं उसे पुद्गल द्रव्य कहते हैं।॥१॥ अब इनकी संज्ञा बतलाते हैं
द्रव्याणि ||२|| अर्थ-ये धर्म-अधर्म आदि द्रव्य हैं । जो त्रिकालवर्ती अपनी पर्यायों को प्राप्त करता है उसे द्रव्य कहते हैं । द्रव्य का लक्षण सूत्रकार ने आगे स्वयं कहा है ॥२॥