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________________ D:\VIPUL\B001.PM65 (26) तत्त्वार्थ सूत्र + अध्याय भूत और भावि पर्यायों को छोड़कर जो वर्तमान पर्याय को ही ग्रहण करता है उस ज्ञान और वचन को ऋजुसूत्र नय कहते हैं। वस्तु हर समय परिणमन करती रहती है। इसलिए वास्तव में तो एक पर्याय एक समय तक ही रहती है। उस एक समयवर्ती पर्याय को अर्थ पर्याय कहते हैं। वह अर्थपर्याय ऋजुसूत्र नय का विषय है। किन्तु व्यवहार में एक स्थूल पर्याय जब तक रहती है तब तक लोग उसे वर्तमान पर्याय कहते हैं। जैसे मनुष्य पर्याय अपनी आयु पर्यन्त रहती है। ऐसी स्थूल पर्याय को ग्रहण करनेवाला ज्ञान और वचन स्थूल ऋजुसूत्र नय कहा जाता है ॥ ४ ॥ लिंग, संख्या, साधन आदिके व्यभिचार को दूर करनेवाले ज्ञान और वचनको शब्दनय कहते हैं । भिन्न भिन्न लिंगवाले शब्दों का एक ही वाच्य मानना लिंग व्यभिचार है- जैसे-तारका और स्वातिका, अवगम और विद्याका, वीणा और वाद्यका एक ही वाच्य मानना । विभिन्न वचनों से प्रयुक्त होने वाले शब्दों को एक ही वाच्य मानना वचन व्यभिचार है । जैसे, आपः और जलका तथा दारा: और स्त्री का एक ही वाच्य मानना । इसी तरह मध्यम पुरुष का कथन उत्तम पुरुष की क्रिया के द्वारा करना पुरुष व्यभिचार है । ' होने वाला काम हो गया।' ऐसा कहना काल व्यभिचार है क्योंकि 'हो गया' तो भूतकाल को कहता है और ' होनेवाला' आगामी काल को कहता है । इस तरह का व्यभिचार शब्द नयकी दृष्टि में उचित नहीं है। जैसा शब्द कहता है वैसा ही अर्थ में भेद मानना इस नयका विषय है। अर्थात यह नय शब्द में लिंग भेद, वचन भेद, कारक भेद, पुरुष भेद और काल भेद वगैरह के होने से उसके अर्थ में भेद का होना मानना है ॥ ५ ॥ लिंग आदि का भेद न होने पर भी शब्द भेद से अर्थ का भेद मानने वाला समभिरूढ़ नय है। जैसे इन्द्र, शुक्र और पुरन्दर ये तीनों शब्द स्वर्ग के स्वामी इन्द्र के वाचक हैं और एक ही लिंग के हैं। किन्तु ये तीनों शब्द उस इन्द्र के भिन्न-भिन्न धर्मों को कहते हैं ऐसा इस नय का मंतव्य है । वह **********+27+++++++++++ तत्त्वार्थ सूत्र +++++++++++++++अध्याय आनन्द करता है इसलिए इन्द्र कहा जाता है, शक्तिशाली होने से शक्र और नगरों को उजाड़ने वाला होने से पुरन्दर कहा जाता है। इस तरह जो नय शब्द भेद से अर्थ भेद मानता है वह समभिरूढ नय है ॥६॥ जिस शब्द का जिस क्रिया रूप अर्थ हो, उस क्रिया रूप परिणमें पदार्थ को ही ग्रहण करने वाला वचन और ज्ञान एवंभूत नय है। जैसे इन्द्र शब्द का अर्थ आनन्द करना है। अतः स्वर्ग का स्वामी जिस समय आनन्दोपभोग करता हो उसी काल में उसे इन्द्र कहना, जब पूजन करता हो तो इन्द्र नहीं कहना, एवंभूतनय है ॥७॥ इस तरह यह सात नयों का स्वरूप है। इनका विषय उत्तरोत्तर सूक्ष्म सूक्ष्म होता जाता है। संक्षेप में नय के दो भेद हैं- द्रव्यार्थिक और पर्यायार्थिक । जो द्रव्य की मुख्यता से वस्तु को विषय करता है वह द्रव्यार्थिक नय है। नैगम, संग्रह और व्यवहार ये द्रव्यार्थिक नय हैं और शेष चार पर्यायार्थिक नय हैं। विस्तार से तो नय के बहुत भेद हैं- क्योंकि प्रत्येक वस्तु में अनेक धर्म पाये जाते हैं। और एक एक धर्म को एक-एक नय विषय करता है। किन्तु यदि कोई एक नय को ही पकड़कर बैठ जाये और उसी को सत्य समझ ले तो वह दुर्नय कहलायेगा । आवश्यकतानुसार एक को मुख्य और शेष को गौण करते हुए सब नयों की सापेक्षता से ही वस्तु का यथार्थ स्वरूप जाना जा सकता है ॥३३॥ इति तत्वार्थधिगमे मोक्षशास्त्रे प्रथमोऽध्यायः ॥ जिस व्यक्ति ने शुद्ध चेतना की स्थिति का, शुद्ध उपयोग की स्थिति का दृढ़ अभ्यास कर लिया वह निश्चित ही उस स्थिति में पहुँच जायेगा जिस स्थिति में पहुँचने पर यह जाना जा सके- मोक्ष है या नहीं, परमात्मा है या नहीं, परमात्मा की स्थिति में सुख है या नहीं ये सारे प्रश्न समाप्त हो जाएंगे, समाहित हो जाएंगे। ++++ ++++++ 28 ++++ ++++++++
SR No.009608
Book TitleTattvartha Sutra
Original Sutra AuthorUmaswati, Umaswami
AuthorKailashchandra Shastri
PublisherPrakashchandra evam Sulochana Jain USA
Publication Year2006
Total Pages125
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari, Philosophy, & Tattvartha Sutra
File Size3 MB
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