________________
D:\VIPUL\B001.PM65 (23)
तत्त्वार्थ सूत्र ***** * अध्याय
वृद्धि होने से गिरावट का न होना अप्रतिपात है। ऋजुमति से विपुलमति अधिक विशुद्ध होता है । तथा ऋजुमति होकर छूट भी जाता है किन्तु विपुलमति वाले का चारित्र वर्धमान ही होता है, अतः केवलज्ञान उत्पन होने तक बराबर बना रहता है ॥ २४ ॥
आगे अवधिज्ञान और मन:पर्यय ज्ञान मे विशेषता बतलाते हैविशुद्धि-क्षेत्र स्वामि-विषयेभ्यो ऽवधि- मन:पर्यययोः 112911
अर्थ अवधिज्ञान और मनः पर्यय ज्ञान मे विशुद्धि, क्षेत्र, स्वामी और विषय की अपेक्षा से अन्तर है।
विशेषार्थ - इसका खुलासा इस प्रकार है-अवधिज्ञान जिस रूपी द्रव्य को जानता है उसके अनन्तवें भाग सूक्ष्म रूपी द्रव्य को मन:पर्यय ज्ञान जानता है । अतः अवधिज्ञान से मन:पर्यय ज्ञान विशुद्ध है । अवधि ज्ञान की उत्पति का क्षेत्र समस्त त्रसनाड़ी है, किन्तु मनःपर्याय ज्ञान मनुष्य लोक मे ही उत्पन्न होता है। अवधि ज्ञान के विषय का क्षेत्र समस्त लोक है किन्तु मन:पर्यय ज्ञान के विषय क्षेत्र पैतालिस लाख योजन का घन रूप ही है । इतने क्षेत्र में स्थित अपने योग्य विषय को ही ये ज्ञान जानते हैं । तथा अवधिज्ञान चारों गतियों के सैनी पंचेन्द्रिय पर्याप्तक जीवों के होता है किन्तु मन:पर्यय ज्ञान कर्मभूमि के गर्भज मनुष्यों के ही होता है उनमें भी संयमियों के ही होता है। संयमियों में भी वर्धमान चारित्रवालों के ही होता है। हीयमान चारित्रवालों के नही होता। वर्धमान चारित्रवालों में भी सात प्रकार की ऋद्धियों में से एक दो ऋद्धियों के धारी मुनियों के ही होता है। ऋद्धिधारियों में भी किसी के ही होता है, सभी के नहीं होता । विषय की अपेक्षा भेद आगे सूत्रकार स्वयं कहेंगे। इस तरह अवधि और मन:पर्यय ज्ञान में विशुद्धि वगैरह की अपेक्षा भेद जानना चाहिए ॥ २५ ॥
अब क्रमानुसार तो केवलज्ञान का लक्षण कहना चाहिए, किन्तु केवलज्ञान का स्वरूप आगे दसवें अध्याय में कहेंगे।
+++++++++++21 +++++++++++
तत्त्वार्थ सूत्र ++++++
****** अध्याय
अतः ज्ञानों का विषय बतलाते हुए प्रथम मतिज्ञान और श्रुतज्ञान का विषय बतलाते हैं
मतिश्रुतयोर्निबन्धो द्रव्येष्वसर्वपर्यायेषु ||२६||
अर्थ- मतिज्ञान और श्रुतज्ञान के विषय का नियम द्रव्यों की कुछ पर्यायों में है । अर्थात ये दोनो ज्ञान द्रव्यों की कुछ पर्यायों को जानते हैं, सब पर्यायों को नहीं जानते हैं।
विशेषार्थ - इस सूत्र में 'विषय' शब्द नहीं है अतः 'विशुद्धि क्षेत्र' आदि सूत्र से विषय शब्द ले लेना चाहिए। तथा 'द्रव्येषु' शब्द बहुवचन का रूप है इसलिए जीव, पुदगल, धर्म, अर्धम, आकाश और काल सभी द्रव्यों का ग्रहण करना चाहिये। इन द्रव्यों में से एक-एक द्रव्य की अनन्त पर्यायें होती हैं। उनमें से कुछ पर्यायों की ही मति श्रुतज्ञान जानते हैं।
शंका- धर्म, अर्धम आदि द्रव्य तो अमूर्तिक हैं। वे मतिज्ञान के विषय नहीं हो सकते अतः सब द्रव्यों को मतिज्ञान जानता है ऐसा कहना ठीक नहीं है !
समाधान- यह आपत्ति ठीक नहीं है, क्योंकि मन की सहायता से होने वाला मतिज्ञान अमूर्तिक द्रव्यों में भी प्रवृत्ति कर सकता है, और मनपूर्वक अवग्रह आदि ज्ञान होने पर पीछे श्रुतज्ञान भी अपने योग्य पर्यायों को जान लेता है। अतः कोई दोष नहीं है ॥ २६ ॥
अब अवधिज्ञान का विषय बतलाते हैंरूपिष्ववधेः || २७//
अर्थ अवधिज्ञान के विषय का नियम रूपी पदार्थों में है। यहाँ पूर्व सूत्र से "असर्वपर्यायेषु" पद ले लेना चाहिये। तथा 'रूपी' शब्द से पुद्गल द्रव्य लेना चाहिये, क्योंकि एक पुद्गल द्रव्य ही वास्तव में रूपी है। अतः अवधिज्ञान पुद्गल द्रव्य की कुछ पर्यायों को जानता है। इतना विशेष है
*******+++
***
+++