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(तत्त्वार्थ सूत्र
अध्याय .D प्रथम संस्करण का प्रकाशकीय आज के युग में सांसारिक झंझटों में फँसे हुये गृहस्थों के लिये आत्म हितकारी सुलभ साधन जुटाना अत्यन्त आवश्यक एवं उपादेय है । स्वाध्याय व शास्त्राभ्यास आत्महित के लिये सर्वोत्तम साधन है।
आचार्य उमास्वामी द्वारा रचित इस ग्रन्थ का दिगम्बर जैन समाज में महत्वपूर्ण स्थान है। जैन आगम में संस्कृत भाषा में रचा गया सर्वप्रथम शास्त्र होने से इसका महत्व और भी बढ़ गया है । इस शास्त्र पर श्री पूज्यपाद स्वामी, अकलंक स्वामी और विद्यानन्दि स्वामी जैसे समर्थ आचार्य देवों ने, विस्तृत टीका रचना की है। श्री सर्वार्थसिद्धि,राजवार्तिक, श्लोकवार्तिक, अर्थ प्रकाशिका आदि ग्रन्थ इसी शास्त्र की टीकाएँ हैं। स्व. पं. श्री कैलाशचन्द्रजी शास्त्री ने इस पर आध्यात्मिक दृष्टिकोण से जन-जन के हितार्थ हिन्दी टीका बड़ी ही सुन्दर व सरल तरीके से की है। स्वयं ही टीका को और भी सरल करने हेत शंका-समाधान किये हैं, एवं कहीं-कहीं विशेषार्थ भी किये हैं जिससे आत्मार्थी बन्धुओं व छात्रों के लिये यह ग्रन्थ उपयोगी सिद्ध हआ है।
आर्यिका श्री १०५ विशालमति माताजी की सद्प्रेरणा से मझे इस ग्रन्थ का पुनः प्रकाशन कराने का सौभाग्य प्राप्त हुआ है । जिसे मैंने समाज के प्रबुद्ध वगों के सहयोग से पूर्ण करने की चेष्टा की है। इस ग्रन्थ के प्रकाशन में पं. श्री विद्याकुमार जी सेठी का भी सहयोग मुझे मिला।
सभी साधर्मी बन्धुओं को जिन्होंने ग्रन्थ प्रकाशन में आर्थिक सहयोग प्रदान कर इसके मूल्य को स्वाध्याय हेतु प्रेरित किया, मैं उन्हेंकोटिशः धन्यवाद देती हूँ।
आशा है साधर्मी बन्धु इस ग्रन्थ के शास्त्र स्वाध्य्य से आत्म कल्याण कर मोक्ष-मार्ग की ओर अग्रसर होंगे, इसी मंगल कामना के साथ......।
श्रीमती कनक जैन २९८, नया बाजार
अजमेर (राज.) दिनांक : २२ सितम्बर १९९१
(तत्वार्थ सूत्र
अध्याय :D प्रकाशकीय
(द्वितीय संस्करण) परम पूज्य आचार्य श्री १०८ उमास्वामि विरचित "तत्त्वार्थ सूत्र" संस्कृत भाषा की अनुपम कृति है। यह जैन धर्म का महत्व पूर्ण ग्रन्थ है। जैन धर्म का मुख्य प्रयोजन चतुर्गति यानी निगोद, नरक, तिर्यंच, देव ओर मनुष्य गतियों के भंवर जाल में फंस कर दुःख पाते हुये संतप्त प्राणियों को बाहर निकाल कर अखंड अविनाशी परम आत्मीय सुख के धाम मोक्ष में सदाकाल के लिये प्रतिष्ठापित करना है और दुर्गति से छुड़ा के सुगति की ओर ले जाना है।
विषय भोगों की चाह में तीव्र आसक्त हुए कभी न भरने वाली आशा की गहन खाई में डूबे हुए, जन्म जन्मांतर के कुचक्र में फंसे संसार के प्राणियों को मोक्ष का उपाय बताने वाले 'तीर्थकर' प्राकृतिक रूप से इस धरती पर शुभ नक्षत्रों के अपूर्व मिलन से भव्य जीवों के भाग्योदय से ही जन्म लेते हैं। वे स्वयं के पुण्योपार्जन से मिली अतुल राज्य वैभव व भोग सम्पदा के होते हुये भी उसे तुच्छ मानकर त्याग देते हैं। संसार से वैराग्य धारण कर तपस्या द्वारा संपूर्ण घातिया कर्मों का नाश कर पूर्ण वीतरागी सर्वज्ञ केवली बन कर सर्व हित का उपदेश देते हैं । तीर्थंकर केवली की ही वाणी मोक्षमार्ग में प्रामाणिक होती है क्योंकि वे ही इस संसार से पूर्ण अलिप्त रहकर भी सम्पूर्ण लोक और अलोक के कणकण को और हर जीव की भूत-भविष्य और वर्तमान सभी त्रैकालिक अनन्त पर्यायों को सर्व क्षेत्र काल भाव और भव से युगपद जानते व देखते हैं।
ऐसे वीतरागी सर्वज्ञ तीर्थंकर की वाणी का जिन प्राणियों को अवलंबन है, स्व और पर सभी प्राणी मात्र के लिये जिनके हृदय में अनुकम्पा या दया भाव है, ऐसे प्राणी ही अपने दृढ़ निश्चय और पुरूषार्थ के बल पर जिनवाणी के दीपक को साथ ले, चारित्र रथ पर आरूढ हो,
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