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(तत्त्वार्थ सूत्र
अध्याय :D इसका दूसरा नाम अनुमान है। जैसे, कहीं धुआँ उठता देखकर यह जान लेना कि वहाँ आग लगी हैं क्योंकि धुआँ उठ रहा है, यह अभिनिबोध है। ये सब ज्ञान परोक्ष प्रमाण हैं ॥१३॥ आगे बतलाते हैं कि मतिज्ञान किससे उत्पन्न होता है
तदिन्द्रियानिन्द्रिय-निमित्तम् ||१४|| अर्थ-वह मतिज्ञान पाँच इन्द्रियों की और अनिन्द्रिय यानी मन की सहायता से होता है।
विशेषार्थ- इन्द्र अर्थात् आत्मा । आत्मा के चिन्ह विशेष को इन्द्रिय कहते हैं। आशय यह है कि जानने की शक्ति तो आत्मा में स्वभाव से ही है, किन्तु ज्ञानावरण कर्म का उदय रहते हुए वह बिना बाह्य सहायता के स्वयं नहीं जान सकता । अतः जिन अपने चिन्हों के द्वारा वह पदार्थों को जानता है उन्हें इन्द्रिय कहते हैं । आत्मा तो सूक्ष्म है, दिखाई नहीं देता । अतः जिन चिन्हों से आत्मा का अस्तित्व जाना जाता है उन्हें इन्द्रिय कहते हैं; क्योंकि इन्द्रियों की प्रवृत्ति से ही आत्मा के अस्तित्व का पता लगता है। अथवा, इन्द्र यानी नामकर्म । उसके द्वारा जो रची जाय उसे इन्द्रिय कहते हैं।
शंका-जो इन्द्रिय नहीं उसे अनिन्द्रिय कहते हैं। तब मन को अनिन्द्रिय क्यों कहा? क्योंकि वह भी तो इन्द्र अर्थात् आत्मा का चिन्ह है, उनके द्वारा भी आत्मा जानता है?
समाधान - यहाँ अनिन्द्रिय का मतलब 'इन्द्रिय नहीं' ऐसा मत लेना, किन्तु किंचित् इन्द्रिय लेना। अर्थात् मन किंचित् इन्द्रिय है, पूरी तरह से इन्द्रिय नहीं है। क्योंकि इन्द्रियों का तो स्थान भी निश्चित है और विषय भी निश्चित है। जैसे, चक्षु शरीर के अमुक भाग में ही पायी जाती है तथा वह रूप को ही जानती है। किन्तु मन का न तो कोई निश्चित स्थान ही है और न कोई निश्चित विषय ही है; क्योंकि जैन सिद्धान्त में ऐसा बतलाया है कि आत्मा के जिस प्रदेश में ज्ञान उत्पन्न होता है उसी स्थान के अंगुल के
तत्त्वार्थ सूत्र *************** अध्याय - असंख्यातवें भाग आत्म प्रदेश उसी समय मनरूप हो जाते हैं तथा मन की प्रवृत्ति भी सर्वत्र देखी जाती है इसलिए उसे अनिन्द्रिय कहा है। मन को अन्तःकरण भी कहते हैं; क्योंकि एक तो वह आँख वगैरह की तरह बाहर में दिखायी नहीं देता । दूसरे, मन का प्रधान काम गुण-दोष का विचार तथा स्मरण आदि है। उसमें वह इन्द्रियों की सहायता नहीं लेता । अतः उसे अन्तःकरण भी कहते हैं ॥१४॥ अब मतिज्ञान के भेद कहते हैं
अवगहेहावाय-धारणाः ||१७|| अर्थ- अवग्रह, ईहा, अवाय और धारणा, ये चार मतिज्ञान के भेद हैं। इन्द्रिय और पदार्थ का सम्बन्ध होते ही जो सामान्य ग्रहण होता है उसे दर्शन कहते हैं । दर्शन के अनन्तर ही जो पदार्थ का ग्रहण होता है वह अवग्रह है। जैसे, चक्षु से सफेद रूप को जानना अवग्रह है। अवग्रह से जाने हुए पदार्थ में विशेष जानने की इच्छा का होना ईहा है । जैसे, यह सफेद रूप वाली वस्तु क्या है? यह तो बगुलों की पंक्ति सी प्रतीत होती है, यह ईहा है। विशेष चिन्हों के द्वारा यथार्थ वस्तु का निर्णय कर लेना अवाय है। जैसे, पंखों के हिलने से तथा ऊपर नीचे होने से यह निर्णय कर लेना कि वह बगुलों की पंक्ति ही है, यह अवाय है । अवाय से जानी हुई वस्तु को कालान्तर में भी नहीं भूलना धारणा है ॥ १५ ॥
आगे इन अवग्रह आदि ज्ञानों के और भेद बतलाने के लिए उनके विषय बतलाते हैंबहु-बहुविध-क्षिप्रानि:सृतानुक्त-धुवाणां सेतराणाम् ||१६||
अर्थ-बहु, बहुविध, क्षिप्र, अनिसृत, अनुक्त, ध्रुव और इनके प्रतिपक्षी अल्प, अल्पविध, अक्षिप्र, निःसृत, उक्त, अध्रुव इन बारहों के अवग्रह आदि ज्ञान होते हैं । अथवा अवग्रह आदि से इन बारहों का ज्ञान होता है।