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(तत्त्वार्थ सूत्र ************** अध्याय - संसार है। अतः अजीव का ग्रहण किया। संसार के प्रधान कारण आस्रव
और बंध हैं । अतः आस्रव और बंध का ग्रहण किया। तथा मोक्ष के प्रधान कारण संवर और निर्जरा हैं इसलिए संवर और निर्जरा का ग्रहण किया ॥४॥
अब सम्यग्दर्शन आदि और जीव आदि के व्यवहार में आने वाले व्यभिचार को दूर करने के लिए सूत्रकार निक्षेपों का कथन करते हैं
नाम-स्थापना-द्रव्य-भावतस्तन्यासः ||७|| अर्थ- सम्यग्दर्शन आदि और जीव आदि का नाम स्थापना द्रव्य और भाव के द्वारा निक्षेप होता है। जिस पदार्थ में जो गुण नहीं है, लोक व्यवहार चलाने के लिए अपनी इच्छा से उसे उस नाम से कहना 'नाम निक्षेप' है । जैसे माता-पिता ने अपने पुत्र का नाम इन्द्र रख दिया परंतु उसमें इन्द्र का कोइ गुण नहीं पाया जाता । अतः वह पुत्र नाम मात्र से इन्द्र है। वास्तव में इन्द्र नहीं है। लकडी, पत्थर, मिट्टी के चित्रों में तथा शतरंज के मोहरो में हाथी, घोड़े वगैरह की स्थापना करना 'स्थापना निक्षेप' है। स्थापना दो प्रकार की होती है "तदाकार" और "अतदाकार"। पाषाणीया धातु के बने हुए तदाकार प्रतिबिम्ब में जिनेन्द्र भगवान की या इन्द्र की स्थापना करना "तदाकार-स्थापना" है, और शतरंज के मोहरे में जो कि हाथी और घोड़े के आकार के नहीं हैं हाथी घोड़े की स्थापना करना अर्थात उनको हाथी धोड़ा मानना 'अतदाकार स्थापना' है।
शंका - नाम और स्थापना में क्या भेद है ?
समाधान - नाम और स्थापना में बहुत भेद है । नाम तो केवल लोक व्यवहार चलाने के लिए ही रखा जाता है, जैसे किसी का नाम इन्द्र या जिनेन्द्र रख देने से इन्द्र या जिनेन्द्र की तरह उसका आदर-सन्मान नही किया जाता, किन्तु धातु पाषाण के प्रतिबिम्ब में स्थापित जिनेन्द्र की
तत्त्वार्थ सूत्र *************अध्याय .) अथवा इन्द्र की पूजा साक्षात जिनेन्द्र या इन्द्र की तरह ही की जाती है।
जो पदार्थ आगामी परिणाम की योग्यता रखता हो उसे "द्रव्य निक्षेप" कहते हैं । जैसे इन्द्र की प्रतिमा बनाने के लिए जो काष्ठ लाया गया हो उसमें इन्द्र की प्रतिमा रूप परिणत होने की योग्यता है अतः उसे इन्द्र कहना 'द्रव्य निक्षेप' है। वतीन पर्याय से युक्त वस्त को 'भावनिक्षेप कहते हैं । जैसे, स्वर्ग के स्वामी साक्षात् इन्द्र को इन्द्र कहना भाव निक्षेप है। ऐसे ये चार निक्षेप हैं।
विशेषार्थ- इन निक्षेपों का यह प्रयोजन है कि लोक में प्रत्येक वस्तु का चार रूप से व्यवहार होता पाया जाता है। जैसे इन्द्रका व्यवहार नाम, स्थापना, द्रव्य और भावके रूप में होता देखा जाता है । इसी तरह सम्यग्दर्शन आदि और जीव आदिका व्यवहार भी चार रूप से हो सकता है। अतः कोई नाम को ही भाव न समझ ले,या स्थापना को ही भाव न समझ बैठे, इसलिए व्यभिचारको दूर करके यथार्थ वस्तु को समझाने के लिए ही यह निक्षेप की विधि बतलाई है । इनमे से नाम, स्थापना और द्रव्य. ये तीन निक्षेप तो द्रव्यार्थिक नयकी अपेक्षा से हैं और चौथा भाव निक्षेप पर्यायार्थिक नय की अपेक्षा से है ॥५॥ अब तत्त्वों जानने का उपाय बतलाते हैं -
प्रमाणनयैरधिगमः //६// अर्थ-प्रमाण और नयों के द्वारा जीवादिक पदार्थों का ज्ञान होता है। सम्पूर्ण वस्तु को जानने वाले ज्ञान को प्रमाण कहते हैं और वस्तु के एक देश को जानने वाले ज्ञानको नय कहते हैं।
विशेषार्थ- प्रमाण के दो प्रकार हैं- स्वार्थ और परार्थ । जिसके द्वारा ज्ञाता स्वयं ही जानता है उसे स्वार्थ प्रमाण कहते हैं । इसी से स्वार्थ प्रमाण ज्ञानरूप ही होता है; क्योंकि ज्ञान के द्वारा ज्ञाता स्वयं ही जान सकता है, दूसरों को नहीं बतला सकता, और जिसके द्वारा दूसरों को
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