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________________ D:IVIPULIBOO1.PM65 (115) (तत्त्वार्थ सूत्र अध्याय .D जाता है । व्यंजन का अर्थ वचन है और मन-वचन-काय की क्रिया को योग कहते हैं। तथा संक्रान्ति का अर्थ परिवर्तन है। ध्यान करते समय द्रव्य को छोड़कर पर्याय का ध्यान करना और पर्याय को छोडकर द्रव्य का ध्यान करना अर्थात् ध्यान के विषय का बदलना अर्थ संक्रान्ति है। श्रुत के किसी एक वाक्य को छोड़कर दुसरे वाक्य का सहारा लेना, उसे भी छोड़कर तीसरे वाक्य का सहारा लेना, इस तरह ध्यान करते समय वचन के बदलने को व्यंजन संक्रान्ति कहते हैं। काययोग को छोड़कर अन्य योग का ग्रहण करना, उसे भी छोड़कर काययोग को ग्रहण करना योग संक्रान्ति है। इन तीनो प्रकार की संक्रान्ति को वीचार कहते हैं। जिस ध्यान में इस तरह का वीचार होता है वह वीचार सहित है और जिसमे वीचार नहीं होता वह वीचार रहित है। विशेषार्थ - अभ्यस्त साधु ही इस चार प्रकार के शुक्ल ध्यान को संसार से छूटने के लिए ध्याते हैं। उसका विशेष खुलासा इस प्रकार हैसब से प्रथम ध्यान के लिए ऐसा स्थान चुनना चाहिये जो एकदम एकान्त हो, जहाँ न मनुष्य का संचार हो, न सर्प, सिंह आदि पशुओं का उत्पात हो, जो न अति गरम हो और न अति शीतल, हवा और वर्षा की भी बाधा जहाँ न हो । सारांश यह है कि चित को चंचल करने का कोई साधन जहाँ न हो, ऐसे स्थान पर किसी साफ सुथरी जमीन में पल्यंकासन लगाकर अपने शरीर को सीधा रक्खें और अपनी गोदी मे बाए हाथ की हथेली पर दायें हाथ की हथेली रक्खें । नेत्र न एक दम बन्द हों और न एकदम खले हों । दृष्टि सौम्य और स्थिर हो । दांत से दांत मिले हों । मख थोडा उठा हुआ हो, प्रसन्न हो । श्वासोच्छवास मन्द मन्द चलता हो । ऐसी स्थिति मे मन को नाभि देश में, हृदय में अथवा मस्तक वगैरह में एकाग्र करके मुमुक्षु को शुभ ध्यान करना चाहिये । सो जब साधु सातवें गुणस्थान से आठवें गुणस्थान में जाता है तब द्रव्य परमाणु अथवा भाव परमाणु का ध्यान करता है। उस समय उसका मन ध्येय में और वाक्य में तथा (तत्त्वार्थ सूत्र अध्याय -D काय योग और वचन योग मे घूमता रहता है। अर्थात् अर्थ, व्यंजन और योग की संक्राति रूप वीचार चलता रहता है। जैसे कोई बालक हाथ में ठ्ठी तलवार लेकर उसे ऐसे उत्साह से चलाता है मानों वृक्ष को काट डालता है वैसे ही वह ध्याता भी मोहनीय कर्म की प्रकृतियों का उपशम अथवा क्षय करता हुआ पृथक्त्व वितर्क वीचार नाम के शुक्ल ध्यान को करता है। वही ध्याता जड़मूल से मोहनीय कर्म को नष्ट करने की इच्छा से पहले से अनन्त गुणा विशद्ध ध्यान का आलंबन लेकर, अर्थ व्यंजन और योग की संक्रान्ति को हटाकर मन को निश्चल करके जब बारहवें गुणस्थान को प्राप्त होता है तो फिर ध्यान लगाकर पीछे नहीं हटता इसलिए उसे एकत्व वितर्क वीचार ध्यान वाला कहते हैं। इस एकत्ववितर्क ध्यान रूपी अग्नि के द्वारा घातिया कर्म रूपी ईधन को जला देने पर, जैसे मेघ पटल के हट जाने पर मेघों में छिपा हुआ सर्य प्रकट होता है वैसे ही कर्मों का आवरण हट जाने पर केवल ज्ञानरूपी सूर्य प्रकट हो जाता है । उस समय वह तीर्थकर केवली अथवा सामान्य केवली होकर अपनी आयु पर्यन्त देश में विहार करते हैं। जब आयु अन्तर्मुहुर्त बाकी रहती है और वेदनीय नाम तथा गोत्रकर्म की स्थिति भी अन्तर्मुहुर्त ही शेष होती है तो वह समस्त वचन योग, मनोयोग और बादर काय योग को छोड़कर सूक्ष्म काय योग का आलम्बन लेकर सूक्ष्म-क्रिया-प्रतिपाति ध्यान को करते हैं । किन्तु यदि आय कर्म की स्थिति अन्तर्महर्त शेष हो और शेष तीन कर्मों की स्थिति अधिक हो तो केवली समुद्घात करते हैं। उसमें आठ समय लगते हैं। पहले समय में आत्म प्रदेशों को फैलाकर दण्ड के आकार करते हैं, दूसरे समय में कपाट के आकार करते हैं. तीसरे समय मे प्रतररूप करते हैं और चौथे समय में अपने आत्म प्रदेशों से लोक को पूर देते हैं । पाँचवे समय में लोक पूरण से प्रतररूप, छठे समय मे प्रतर से कपाट रूप और सातवें समय मे कपाट से दण्ड रूप करते हैं । आठवें समय में बाहर निकले हुए आत्म प्रदेश फिर शरीर में प्रविष्ट होकर ज्यों के त्यों हो जाते हैं। **********42050 ** * **
SR No.009608
Book TitleTattvartha Sutra
Original Sutra AuthorUmaswati, Umaswami
AuthorKailashchandra Shastri
PublisherPrakashchandra evam Sulochana Jain USA
Publication Year2006
Total Pages125
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari, Philosophy, & Tattvartha Sutra
File Size3 MB
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