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तत्त्वार्थ सूत्र ************** अध्याय - लगाना विविक्त शय्यासन तप है। कष्ट सहने के अभ्यास के लिए, आराम तलबी की भावना को दूर करने के लिए और धर्म की प्रभावना के लिए ग्रीष्म ऋतु में वृक्ष के नीचे ध्यान लगाना, शीत ऋतु में खुले हुए मैदान में सोना, अनेक प्रकार के आसन लगाना आदि कायक्लेश तप है। बाह्य द्रव्य खान पान आदि की अपेक्षा से ये तप किये जाते हैं, तथा इन तपों का पता दूसरे लोगों को भी लग जाता है इसलिए इन्हें बाह्य तप कहते हैं।
शंका - परीषह में और कायक्लेश तप में क्या अन्तर है?
समाधान - कायक्लेश स्वयं किया जाता है और परीषह अचानक आ जाती है ॥१९॥ अब अभ्यन्तर तप के भेद कहते हैं - प्रायश्चित्त - विनय-वैयावृत्य-स्वाध्याय
व्युत्सर्ग - ध्यानान्युत्तरम् ||१०|| अर्थ- प्रत्तश्चित्त, विनय, वैयावृत्य, स्वाध्याय, व्युत्सर्ग, और ध्यान ये छह अभ्यन्तर तप हैं। ये तप मन को वश में करने के लिए किये जाते हैं इसलिए इन्हें अभ्यंतर तप कहते हैं। प्रमाद से लगे हुए दोषों को दूर करना प्रायश्चित्त तप है। पूज्य पुरुषों का आदर करना विनय तप है । शरीर वगैरह के द्वारा सेवा सुश्रुषा करने को वैयावृत्य कहते हैं। आलस्य त्याग कर ज्ञान का आराधन करना स्वाध्याय है। ममत्व के त्याग को व्युत्सर्ग कहते हैं। और चित्त की चंचलता के दूर करने को ध्यान कहते हैं ॥२०॥
इसके बाद इन अभ्यन्तर तपों के उप-भेदों की संरव्या कहते हैं नव-चतुदर्श-पंच-द्धि भेदा यथाक्रमं प्राग्ध्यानात् ||२१||
अर्थ-प्रायचित के नौ भेद हैं । विनय के चार भेद है। वैयावृत्य के दस भेद हैं। स्वाध्याय के पाँच भेद हैं और व्युत्सर्ग के दो भेद हैं । इस तरह
तत्त्वार्थ सूत्र #########** ** अध्याय - ध्यान से पहले पाँच प्रकार के तपों के ये भेद हैं ॥२१॥ अब प्रायचित्त के नौ भेद कहते हैं -
आलोचना-प्रतिक्रमण-तदुभय-विवेकव्युत्सर्ग-तप-च्छेद-परिहारोपस्थापनाः ||२||
अर्थ-आलोचन, प्रतिक्रमण, तदुभय यानी आलोचन और प्रतिक्रमण दोनों, विवेक, व्युत्सर्ग, तप, च्छेद, परिहार और उपस्थापना ये नौ भेद प्रायश्चित्त के हैं।
गुरु से अपने प्रमाद को निवेदन करने का नाम आलोचना है । वह आलोचना दस दोषों को बचाकर करनी चाहिये । वे दोष इस प्रकार के हैं - आचार्य अपने ऊपर दया करके थोडा प्रायश्चित दें, इस भाव से आचार्य को पीछी कमण्डलु आदि भेंट करके दोष का निवेदन करना आकम्पित दोष है। गुरु की बातचीत से प्रायश्चित्त का अनुमान लगाकर दोष का निवेदन करना अनुमापित दोष है। जो दोष किसी ने करते नही देखा उसे छिपा जाना और जो दोष करते देख लिया उसे गुरु से निवेदन करना दृष्ट दोष है। केवल स्थूल दोष का निवेदन करना बादर दोष है । महान् प्रायचित के भय से महान दोष को छिपा लेना और छोटे दोष का निवेदन करना सूक्ष्म दोष है। दोष निवेदन करने से पहले गुरु से पूछना कि महाराज! यदि कोई ऐसा दोष करे तो उसका क्या प्रायश्चित्त होता है, यह छन्न दोष है। प्रतिक्रमण के दिन जब बहुत से साधु एकत्र हुए हों और खूब हल्ला हो रहा हो उस समय दोष का निवेदन करना, जिससे कोई सुन न सके, शब्दाकुलित दोष है। गुरु ने जो प्रायचित दिया है वह उचित है या नहीं, ऐसी आशंका से अन्य साधुओं से पूछना बहुजन नाम का दोष है। गुरु से दोष न कहकर अपने सहयोगी अन्य साधुओं से अपना दोष कहना अव्यक्त नाम का दोष है। गुरु से प्रमाद का निवेदन न करके, जिस साधुने अपने समान अपराध किया हो उससे जाकर पूछना कि तुझे गुरु ने