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वर्तमान तीर्थंकर श्री सीमंधर स्वामी कितना दूर हो और प्रत्यक्ष तो रूबरू होवे कि आँख से दिखे इन इन्द्रियों से।
प्रश्नकर्ता : तो वह परोक्ष का लाभ कितना लेकिन ? परोक्ष और प्रत्यक्ष के लाभ में अंतर कितना?
दादाश्री : परोक्ष तो वह तीन मील दूर हो तो भी वही का वही हुआ। लाख मील दूर हो तो भी वही का वही। अर्थात् इसमें बाधा नहीं। दूर है उसमें बाधा नहीं।
प्रश्नकर्ता : लेकिन प्रत्यक्ष वे विचरित तीर्थंकर है न ? दादाश्री : वह तो मूल तो प्रत्यक्ष सिवा कोई काम होता ही नहीं न!
अभी तो यह तुम्हें पहचान कराते है! हम यह हररोज बुलवाते है, वहाँ जाना पड़ेगा। उनके दर्शन करोगें, उस दिन मुक्ति । वह अंतिम दर्शन ।
प्रश्नकर्ता : महाविदेह क्षेत्र में ?
दादाश्री : हाँ, हम तो खटपटिये (कल्याण के लिये खटपट करनेवाले) है। हमारे पास एकावतारी होते है। हमारे पास पूरा पके नहीं। इसलिए उनका नाम दिलवाते है। हम दर्शन हररोज सीमंधर स्वामी के, वहाँ के पंच परमेष्टि के, उन्नीस अन्य तीर्थंकरो के, यह जो सब बुलवाते है वह एक ही उद्देश्य के लिए कि अब तुम्हारा आराधक पद वहाँ है।
अब यहाँ आराधक पद नहीं रहा इस क्षेत्र में । इसलिए हम वहाँ पर पहचान करवाते है, दादा भगवान की साक्षी में। अर्थात् मैं ने एक आदमी से पछा कि भैया, तुम महाविदेह क्षेत्र में हो ऐसा मानो. यही महाविदेह क्षेत्र है ऐसा समझो कल्पना से और कलकत्ता है वहाँ सीमंधर स्वामी है, तो यहाँ से कितनी बार तुम कलकत्ता दर्शन करने जाओगे? कितनी बार जाओगे ?
प्रश्नकर्ता : एक बार या ज्यादा से ज्यादा दो बार। दादाश्री : हाँ, ज्यादा से ज्यादा दो बार। तो महाविदेह क्षेत्र में ही जो
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वर्तमान तीर्थंकर श्री सीमंधर स्वामी इतना लाभ मिलता हो तो अपने इस क्षेत्र में मेरे पास ऐसी चाबी है कि रोजाना लाभ में करा दूं। इसलिए सीमंधर स्वामी तीर्थंकर के खयाल में आया कि ऐसे भक्त कोई हुए नहीं कि रोज-रोज दर्शन करते है। रहते फॉरेन में और प्रतिदिन दर्शन करने आते है। उसके लिए हमें नहीं चाहिए गाडी कि नहीं चाहिए घोड़ा! दादा भगवान श्रू कहाँ कि पहुँच गया। वहाँ कुछ लोग तो घोडागाडी लेकर जाये तब पहुँच पाये।
बिना माध्यम पहुँचे नहीं ! प्रश्नकर्ता : 'प्रत्यक्ष दादा भगवान की साक्षी में सीमंधर स्वामी को नमस्कार करता हूँ' वह सीमंधर स्वामी को पहुँचता है। वे देख सकते है। यह हकीकत है न ?
दादाश्री : वे देखने में सामान्य भाव से देखते है। अर्थात् विशेष भाव से देखते नहीं वे तीर्थंकर । अर्थात् यह दादा भगवान श्रु कहाँ है इसलिए वहाँ पर पहुँचता है। अर्थात् यह बिना माध्यम के पहुँचे नहीं।
भिन्न, मैं और 'दादा भगवान'। पुस्तक में जैसे लिखा है कि यह दिखाई देते है वे 'ए.एम.पटेल' है। मैं ज्ञानी पुरुष हूँ और भीतर 'दादा भगवान' प्रकट हुए है। और वह चौदलोक के नाथ है। अर्थात जो कभी सनने में नही आया हो ऐसे ये यहाँ प्रकट हुए है। इसलिए खुद ही भगवान हूँ, ऐसा हम कभी भी नहीं कहते। वह तो पागलपन है, बेवकूफी है। जगत के लोग कहें पर हम नहीं कहते कि हम इस तरह है। हम तो साफ कहते है। और में तो 'भगवान हूँ' ऐसा भी नहीं कहता। 'मैं तो ज्ञानी पुरुष हूँ' और तीनसौ छप्पन डिग्री पर हूँ अर्थात् चार डिग्री का फर्क है। दादा भगवान की बात अलग है और व्यवहार में मैं 'ए.एम.पटेल' खुद को बताता हूँ।
अब इस भेद की लोगों को ज्यादा समज नहीं होती मतलब दादा भगवान भीतर प्रकट हुए है। जो चाहे सो काम बना लो। ऐसा एक्झेक्ट