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सेवा-परोपकार
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दादाश्री : हाँ, परोपकार के लिए ही जीना चाहिए। पर यह आप अब ऐसी लाइन तुरंत ही बदलो तो ऐसा करते हुए पिछले एक्शन आते हैं। इसलिए फिर आप ऊब जाते हो कि यह तो मुझे अभी भी सहन करना पड़ता है ! पर थोड़ा समय सहन करना पड़ेगा, उसके बाद आपको कोई दुःख नहीं रहेगा। पर अब तो नये सिरे से लाईन बाँध रहे हो, इसलिए पिछले रिएक्शन तो आएँगे ही। आज तक जो उलटा किया था, उसके फल तो आएँगे ही न?
अंततः उपकार खुद पर ही करना
हमेशा किसी पर उपकार किया हो, किसी का फ़ायदा किया हो, किसी के लिए जीए हों, उतना हमें लाभ होता है। पर वह भौतिक लाभ होता है। उसका भौतिक फल मिलेगा।
प्रश्नकर्ता: किसी पर उपकार करने के बजाय खुद पर उपकार करें तो ?
दादाश्री : बस, खुद पर उपकार करने के लिए ही सब करना है। यदि खुद पर उपकार करे तो उसका कल्याण हो जाए, पर उसके लिए अपने आपको (अपनी आत्मा को ) जानना पड़ेगा। तब तक लोगों पर उपकार करते रहना, पर उसका भौतिक फल मिलता रहेगा। हमें खुद को पहचानने के लिए 'हम कौन हैं' यह जानना होगा। वास्तव में हम खुद शुद्धात्मा हैं। आप तो आज तक 'मैं चन्द्रभाई हूँ' इतना ही जानते हो न कि दूसरा कुछ जानते हो? यह 'चन्दूभाई' वह 'मैं' ही हूँ, ऐसा कहोगे।' इसका पति हूँ, इसका मामा हूँ, इसका चाचा हूँ, ऐसा सारा सिलसिला ! ऐसा ही है न? यही ज्ञान आपके पास है न? उससे आगे गए नही न? मानवसेवा, सामाजिक धर्म प्रश्नकर्ता: पर व्यवहार में ऐसा होता है न कि दया भाव रहता
सेवा परोपकार
है। सेवा रहती है। किसी के प्रति लगाव रहता है कि कुछ कर पाऊँ, किसी को नौकरी दिलाना, बीमारों को अस्पताल में भर्ती कराना। ये सारी क्रियाएँ एक तरह का व्यवहार धर्म ही हुआ न?
दादाश्री : वे तो सब सामान्य फ़र्ज़ हैं।
प्रश्नकर्ता : तो मानव सेवा वह तो एक प्रकार से व्यावहारिक हुआ, यही समझें न? वह तो व्यवहार धर्म हुआ न?
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दादाश्री : वह व्यवहार धर्म भी नहीं, वह तो समाज धर्म कहलाता है। जिस समाज को अनुकूल हो, उसके लोगों को अनुकूल पड़ेगा और वही सेवा किसी और समाज को देने जाएँ, तो वह प्रतिकूल पड़ेगा। इसलिए व्यवहार धर्म कब कहलाता है कि जो सभी को एक जैसा लगे तब ! आज तक जो आपने किया, वह समाजसेवा है । हरएक की समाजसेवा अलग तरह की होती है। हरएक समाज अलग तरह का, उसी तरह सेवा भी अलग प्रकार की होती है।
लोकसेवा, बिगिन्स फ्रोम होम
प्रश्नकर्ता: जो लोग लोकसेवा में आए, वे किस लिए आए होंगे ?
दादाश्री : वह तो भावना अच्छी। लोगों का किस तरह से भला हो, उसकी इच्छा। मनोभाव अच्छा हो तब न !
वह तो भावना-मनोभाव लोगों के प्रति, कि लोगों को जो दुःख होता है वह नहीं हो, ऐसी भावना है उसके पीछे ऊँची भावना न बहुत । पर लोक सेवकों का यह मैंने देखा कि सेवकों को घर जाकर पूछते हैं न, तब पीछे धुआँ निकलता है। इसलिए वह सेवा नहीं है। सेवा घर से शुरू होनी चाहिए। बिगिन्स फ्रोम होम। फिर नेबरर्स (पड़ोसी)। बाद में आगे की सेवा। ये तो घर जाकर पूछते हैं तब धुआँ निकलता है।