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सेवा-परोपकार
सेवा-परोपकार
पेड़ को खुराक कहाँ से मिलती है? इन पेड़ो ने कोई पुरुषार्थ किया है? वे तो ज़रा भी 'इमोशनल' नहीं हैं। वे कभी 'इमोशनल' होते हैं? वे तो कभी आगे-पीछे होते ही नहीं। उन्हें कभी ऐसा होता नहीं कि यहाँ से एक मील दूर विश्वामित्री नदी है, तो वहाँ जाकर पानी पी आऊँ!
प्रामाणिकता और पारस्पारिक 'ओब्लाइजिंग नेचर'। बस, इतना ही जरूरी है। पारस्पारिक उपकार करना, इतना ही मनुष्य जीवन की बड़ी उपलब्धि है ! इस संसार में दो प्रकार के लोगों को चिंता मिटती है, एक ज्ञानी पुरुष को और दूसरे परोपकारी को।
परोपकार की सच्ची रीति प्रश्नकर्ता : इस संसार में अच्छे कृत्य कौन-से कहलाते हैं? उसकी परिभाषा दी जा सकती है?
दादाश्री : हाँ, अच्छे कृत्य तो ये पेड़ सभी करते हैं। वे बिलकुल अच्छे कृत्य करते है। पर वे खुद कर्ता भाव में नहीं है। ये पेड़ जीवित हैं। सभी दूसरों के लिए अपने फल देते है। आप अपने फल दूसरों को दे दो। आपको अपने फल मिलते रहेंगे। आपके जो फल उत्पन्न होंदैहिक फल, मानसिक फल, वाचिक फल, 'फ्री ऑफ कोस्ट' लोगों को देते रहो तो आपको आपकी हरएक वस्तु मिल जाएगी। आपकी जीवन की जरूरतों में किंचित् मात्र अड़चन नहीं आएगी और जब वे फल आप अपने आप खा जाओगे तो अड़चन आएगी। यदि आम का पेड़ अपने फल खुद खा जाए तो उसका जो मालिक होगा, वह क्या करेगा? उसे काट देगा न? इसी तरह ये लोग अपने फल खद खा जाते हैं। इतना ही नहीं ऊपर से फ़ीस माँगते है।
एक अर्जी लिखने के बाईस रुपये माँगते हैं! जिस देश में 'फ्री ऑफ कोस्ट' वकालत करते थे और ऊपर से अपने घर भोजन कराकर
वकालत करते थे, वहाँ यह दशा हुई है। यदि गाँव में झगड़ा हुआ हो, तो नगरसेठ उन दो झगड़नेवालों से कहता, 'भैया चन्दूलाल आज साढ़े दस बजे आप घर आना और नगीनदास, आप भी उसी समय घर आना।' और नगीनदास की जगह यदि कोई मज़दूर होता या किसान होता जो लड़ रहे होते तो उनको घर बुला लेता। दोनों को बिठाकर, दोनों को सहमत करवा देता। जिसके पैसे चुकाने हों, उसे थोड़े नक़द दिलवाकर, बाकी के किश्तों में देने की व्यवस्था करवा देता। फिर दोनों से कहता, 'चलो, मेरे साथ भोजन करने बैठ जाओ।' दोनों को खाना खिलाकर घर भेज देता। हैं आज ऐसे वकील? इसलिए समझो और समय को पहचानकर चलो। और यदि खुद, खुद के लिए ही करे, तो मरते समय दखी होता है। जीव निकलता नहीं और बंगले-मोटर छोड़कर जा नहीं पाता!
सलाह के पैसे उनसे माँगते नहीं थे। ऐसा-वैसा करके निबटा देते। खुद घर के दो हजार देते थे। और आज सलाह लेने गया हो तो सलाह की फ़ीस के सौ रुपये ले लेंगे। 'अरे, जैन हो आप,' तब कहे, 'जैन तो हैं, पर धंधा चाहिए कि नहीं चाहिए हमें? साहिब, सलाह की भी फ़ीस? और आप जैन? भगवान को भी शरमिंदा किया? वीतरागों को भी शरमिंदा किया? नो हाउ की फ़ीस? यह तो कैसा तूफ़ान कहलाए?'
प्रश्नकर्ता : यह अतिरिक्त बुद्धि की फ़ीस, ऐसा कहते हो न?
दादाश्री : क्योंकि बुद्धि का विरोध नहीं है। यह बुद्धि, विपरीत बुद्धि है। खुद का ही नुकसान करनेवाली बुद्धि है। विपरीत बुद्धि! भगवान ने बुद्धि के लिए विरोध नहीं किया। भगवान कहते हैं, सम्यक् बुद्धि भी हो सकती है। वह बुद्धि बढ़ गई हो, तो मन में ऐसा होता है कि किस-किस का निकाल करके ,, किस किस की हेल्प करूँ? किस किस को सर्विस नहीं है, उसे सर्विस मिले ऐसा कर दूं।