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सत्य-असत्य के रहस्य
प्रश्नकर्ता : संसार में सत्य का आग्रह कहाँ रखते हैं!!
दादाश्री : सत्य का आग्रह सिर्फ करने के लिए ही करते हैं। अभी यहाँ पर तीन रास्ते आएँ तो एक कहेगा, 'इस रास्ते पर चलो।' दूसरा कहेगा, 'नहीं, इस रास्ते।' तीसरा कहेगा, 'नहीं, इस रास्ते पर चलो।' वे तीनों अलग-अलग रास्ते बताते हैं और एक खद अनुभवी हो वह जानता है कि, 'इसी रास्ते पर सच्ची बात है और ये दोनों गलत रास्ते पर हैं।' तो उसे एक-दो बार ऐसे कहना चाहिए कि, 'भाई, हम आपसे विनती करते हैं कि यही सच्चा रास्ता है।' फिर भी नहीं माने तो खुद का छोड़ दे, वही सच्चा है।
प्रश्नकर्ता : खुद का तो छोड़ दे, पर वह यदि जानता हो कि यह गलत रास्ता है तो उस पर वह साथ में किस तरह जाए? दादाश्री : जो हो वही ठीक है फिर। पर छोड़ देना चाहिए।
आग्रह छूटने से, संपूर्ण वीतराग के दर्शन प्रश्नकर्ता : इसलिए यह तो असत्य का आग्रह तो छोड़ना है, पर सत्य का भी आग्रह छोड़ना है! दादाश्री : हाँ, इसीलिए कहा है न,
जब सत्य का भी आग्रह छूट जाता है,
तब वीतराग संपूर्ण पहचाने जाते हैं। सत्य का आग्रह हो तब तक वीतराग नहीं पहचाने जाते। सत्य का आग्रह नहीं रखना है। देखो कितना सुंदर वाक्य लिखा है!
चोरी-झूठ, हर्ज नहीं, पर... कोई चोर चोरी करता हो और वह हमारे पास आए और कहे, 'मैं तो चोरी का काम करता हूँ तो अब मैं क्या करूँ?' तब मैं उसे कहूँ कि, 'तू करना, मुझे हर्ज नहीं है। पर उसकी ऐसी जिम्मेदारी आती है। तुझे यदि
सत्य-असत्य के रहस्य वह जोखिमदारी सहन होती हो तो तू चोरी करना। हमें आपत्ति नहीं है।' तो वह कहेगा कि, 'साहब, इसमें आपने क्या उपकार किया?! जिम्मेदारी तो मेरी आनेवाली ही है।' तब मैं कहूँ कि मेरे उपकार की तरह मैं तुझे कह दूँ कि तू 'दादा' के नाम का प्रतिक्रमण करना या महावीर भगवान के नाम का प्रतिक्रमण करना कि 'हे भगवान, मुझे यह काम नहीं करना है, फिर भी करना पड़ता है। उसकी मैं क्षमा माँगता हूँ।' ऐसे क्षमा माँगते रहना और काम भी करते जाना। जान-बूझकर मत करना। जब तुझे भीतर इच्छा हो कि, 'अब काम नहीं करना है।' तो उसके बाद तू बंद कर देना। तेरी इच्छा है न, यह काम बंद करने की? फिर भी अपने आप ही अंदर से धक्का लगे और करना पड़े, तो भगवान से माफ़ी माँगना। बस, इतना ही! दूसरा कुछ भी नहीं करना है।
चोर से ऐसा नहीं कह सकते कि 'कल से काम बंद कर देना।' उससे कुछ होता नहीं है। कुछ चलेगा ही नहीं न! 'ऐसे छोड़ दो, वैसे छोड़ दो' ऐसा कुछ नहीं कह सकते। हम कुछ छोड़ने का कहते ही नहीं, इस पाँचवे आरे (कालचक्र का बारहवाँ हिस्सा) में छोड़ने का कहने जैसा ही नहीं है। वैसे ही यह भी कहने जैसा नहीं है कि यह ग्रहण करना। क्योंकि छोड़ने से छूटे ऐसा नहीं है।
यह विज्ञान बिलकुल अनजान लगता है लोगों को! सुना हुआ नहीं, देखा नहीं, जाना नहीं! अभी तक तो लोगों ने क्या कहा? कि, 'यह गलत कर्म छोड़ो और अच्छे कर्म करो।' उसमें छोड़ने की शक्ति नहीं है और बांधने की शक्ति नहीं है और बेकार ही गाया करते हैं कि 'आप करो।' तब वह कहता है कि, 'मुझसे होता नहीं है, मुझे सत्य बोलना है पर बोला नहीं जाता।' तब हमने नया विज्ञान निकाला। भाई, असत्य बोलने में हर्ज नहीं है न तुझे? वह तो हो सकेगा न? अब असत्य बोलेगा तो त ऐसा करना, उसका फिर इस तरह से प्रतिक्रमण करना।' चोरी करे तो उसे लोग कहते हैं, 'नहीं, चोरी बंद कर दे।' किस तरह बंद हो वह?! कब्ज हो गया हो, उसे जलाब करवाना हो तो दवाई देनी पड़ती है, जिसे दस्त हो गए हों, उसे बंद करना हो तो भी दवाई देनी पड़ती है! यह तो ऐसे ही कहीं चले वैसा है यह जगत्?!