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३. दुःख वास्तव में है?
क्लेश रहित जीवन दादाश्री : वह तो खुद खड़ा किया हुआ है, इसलिए जितना बड़ा करना हो उतना हो सकता है, चालीस गुना करना हो तो उतना हो।
बोलते हैं सौ-सौ बार कि 'मैं मर गया?' अरे जीवित है और किसलिए मर गया हूँ, ऐसा बोलता है? मरने के बाद बोलना न कि मैं मर गया। ज़िन्दा कभी मर जाता है? 'मैं मर गया' यह वाक्य तो सारी ज़िन्दगी में बोलना नहीं है। सच्चे दुःख को जानना चाहिए कि दुःख किसे कहते हैं?
इस बच्चे को मैं मारता हूँ तो भी वह रोता नहीं और हँसता है, उसका क्या कारण है? और आप उसे सिर्फ एक चपत लगाओ तो वह रोने लगेगा. उसका क्या कारण है? उसे लगा इसलिए? ना, उसे लगने का दुःख नहीं है। उसका अपमान किया उसका उसे दुःख है।
इसे दुःख कहें ही कैसे? दु:ख तो किसे कहते हैं कि खाने का न मिले, संडास जाने का न मिले, पेशाब करने का न मिले. वह दःख कहलाता है। यह तो सरकार ने घर-घर में संडास बनवा दिए हैं, नहीं तो पहले गाँव में लोटा लेकर जंगल में जाना पड़ता था। अब तो बेडरूम में से उठे कि ये रहा संडास! पहले के ठाकर के वहाँ भी नहीं थी. ऐसी सुविधा आज के मनुष्य भोग रहे हैं। ठाकुर को भी संडास जाने के लिए लोटा लेकर जाना पड़ता था। उसने जुलाब लिया हो तो ठाकुर भी दौड़ता। और सारे दिन ऐसा हो गया और वैसा हो गया, ऐसे शोर मचाते रहते हैं। अरे, क्या हो गया पर? यह गिर गया, वह गिर गया, क्या गिर गया? बिना काम के किसलिए शोर मचाते रहते हो?
ये दुःख हैं, वे उल्टी समझ के हैं। यदि सही समझ फिट करें तो दु:ख जैसा है ही नहीं। यह अपना पैर पक गया हो तो हमें पता लगाना चाहिए कि मेरे जैसा दुःख लोगों को है कि क्या? अस्पताल में देखकर आएँ तब वहाँ पता चले कि अहोहो! दुःख तो यहीं है। मेरे पैर में जरासा ही लगा है और मैं नाहक दुःखी हो रहा हूँ। यह तो जाँच तो करनी पड़ेगी न? बिना जाँच किए दु:ख मान लें तो फिर क्या हो? आप सभी पुण्यवानों को दु:ख हो ही कैसे? आप पुण्यवान के घर में जन्मे हैं। थोड़ी ही मेहनत से सारे दिन का खाना-पीना मिला करता है।
....निश्चित करने जैसा 'प्रोजेक्ट' इन मनुष्यों को जीवन जीना भी नहीं आया, जीवन जीने की चाबी ही खो गई है। चाबी बिलकुल खो गई थी, तो अब वापिस कुछ अच्छा हुआ है। इन अंग्रेजों के आने के बाद लोग खद के कट्टर संस्कारों में से ढीले पड़े हैं, इसलिए दूसरों में दखल नहीं करते, और मेहनत करते रहते हैं। पहले तो सिर्फ दखल ही करते थे।
ये लोग फिजूल मार खाते रहते हैं। इस जगत् में आपका कोई बाप भी ऊपरी नहीं है। आप संपूर्ण स्वतंत्र हो। आपका प्रोजेक्ट भी स्वतंत्र है, पर आपका प्रोजेक्ट ऐसा होना चाहिए कि किसी जीव को आपसे किंचित् मात्र दुःख न हो। आपका प्रोजेक्ट बहुत बड़ा करो, सारी दुनिया जितना करो।
प्रश्नकर्ता : वह संभव है?
दादाश्री : हाँ, मेरा बहुत बड़ा है। किसी भी जीव को दुःख न हो उस तरह से मैं रहता हूँ।
प्रश्नकर्ता : पर दूसरों के लिए तो वह संभव नहीं न?
दादाश्री : संभव नहीं, पर उसका अर्थ ऐसा नहीं कि सब जीवों को दुःख देकर अपना प्रोजेक्ट करना।
ऐसा कोई नियम तो रखना चाहिए न कि किसी को कम से कम दुःख हो? ऐसा प्रोजेक्ट कर सकते हैं न। मैं आपको बिलकुल असंभव है, वह तो करने को नहीं कहता न।
...मात्र भावना ही करनी है
प्रश्नकर्ता : किसी को दुःख ही नहीं, तो फिर हम दूसरों को दुःख दें तो उसे दु:ख किस प्रकार से होता है?
प्रश्नकर्ता : सबको खुद का दुःख बड़ा लगता है न?