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दो शब्द कविवर माघ के शिशुपालवध' महाकाव्य की यह हिन्दी व्याख्या आज से कई वर्ष पूर्व ही प्रकाशित हो जानी चाहिए थी, पर प्रकाशक की अत्यधिक व्यस्तता के कारण ऐसा न हो पाया । प्रकाशक महोदय ने आज से नौ वर्ष पूर्व मुझसे इसकी हिन्दी व्याख्या करने को कहा था । नदनुसार मैनें हिन्दी अनुवाद का कार्य आरम्भ भी कर दिया था. किन्तु प्रकाशक महोदय ने हर्षचरितम् की मेरी हिन्दी व्याख्या को इसके पूर्व प्रकाशित करने का विचार किया और उसे सन् १९९२ में प्रकाशित कर दिया और इस कारण भी इसका अनुवाद प्रकाशित न हो सका ।
मस्कृत महाकाव्य की परम्परा में 'शिशुपालवध' महाकाव्य एक महत्वपूर्ण काव्य ग्रन्थ है । प्राचीन पण्डितों ने इसे संस्कृत काव्यों की बृहत्रयी (किरात, शिशुपालवध और नैषध) में परिगणित किया है । इस पर अनेक संस्कृत टीकाओं की उपलब्धि होती है । किन्तु इस दुरुह महाकाव्य पर सर्वसुबोध हिन्दी व्याख्याओं का प्रकाशन अधिक नहीं हुआ है । केवल पं० हरगोविन्द शास्त्रीकृत 'मणिप्रभा' नामक हिन्दी व्याख्या उपलब्ध है ।
उक्त हिन्दी टीका में प्राय: भाषानुवाद नथा कहीं कहीं पर विमर्श' दिया गया है । इस अल्पप्रयास में पाठकों को ग्रन्थ के श्लोकों का गूढार्थ समझने में कठिनाई होती है, साथ ही कवि की बहुज्ञतावश श्लोकों में निहित अन्य शास्त्रों के मन्दों का प्रकाशन भी नहीं हो पाता । इस कमी को दूर करने के लिए मेरे पुत्र डॉ० (राजू) राजेश्वर शास्त्री मुसलगांवकर ने जिन्हें पू० डॉ० गजानन शास्त्री मुसलगांवकर जी का वरदहस्न प्राप्त है, परिश्रमपूर्वक हिन्दी व्याख्या के पश्चात् 'विशेष' में विभित्र शास्त्र सन्दर्भो को स्पष्ट किया है । साथ ही विविध लक्षण ग्रन्थों - कुवलयानन्द, वक्रोक्तिजीवित, सरस्वतीकण्ठाभरण, काव्यप्रकाश, साहित्यदर्पण, उज्वलनीलमणि, दशरूपक और चित्रमीमांसा के अनुसार श्लोकों में अनुस्यूत एकाधिक अंलकारों को भी दर्शाया है ।
अन्त में प्रत्येक सर्ग में प्रयुक्त छन्दों की सूची दी है तथा सुभाषितों और लोकोक्तियों का उल्लेख भी किया है । निश्चय ही अधावधि प्रकाशित शिशुपालवध के किसी भी संस्करण में इतनी विस्तृत एव सहित सटीक सामग्री उपलब्ध नहीं है ।।
पितृतुल्य स्नेह एवं पद पद पर शिक्षा देने वाले मेरे पूज्य बड़े भाई डॉ. गजाननशास्त्री मुसलगांवकर जी की ही प्रेरणा एवं ज्ञानोपदेश को सहायता से मैनें शिशुपालवध महाकाव्य का हिन्दी अनुवाद पूर्ण किया है, उनका तो मैं सदा ही कृतज्ञ हूँ, उनके ऋण को तो शब्द मात्र के उल्लेख से चुकाना संभव नहीं है, अत: मैं उनके आशीर्वाद का अभिलषी हूँ।
वाराणसी के विश्वविख्यात प्रकाशक चौखम्भा संस्कृत संस्थान के संचालक श्री मोहनदास जी गुप्त इसे प्रकाशित कर विद्वानों तक पहुँचा रहे हैं, एतदर्थ उन्हें भूरिश: धन्यवाद दे रहा हूँ । साथ ही श्रीरामरञ्जन मालवीय [Malaviya Computers] को हृदय से आशीर्वाद है, जिन्होंने अनवरत परिश्रम कर अपने कम्प्यूटर में इस पुस्तक को वर्तमान भौतिक स्वरूप प्रदान किया । मैं इनके मङ्गलमय भविष्य के लिए भगवान् विश्वनाथ से शुभकामना करता हूँ।
- केशवराव सदाशिव शास्त्री मुसलगांवकर