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की भांति मिलकर आगे बढ़ने लगीं । इस अनुपम दृश्य को देखने के लिये देवगण विमान से आकाश में स्थिर होकर देखने लगे । इतने में ही युधिष्ठिर के यज्ञ में आये हुए राजाओं के शिविरों से घिरे हुए तथा स्वागतार्थ निर्मित नव द्वारों से सुशोभित हस्तिनापुर में भगवान् श्रीकृष्ण ने पाँचों पाण्डवों के साथ प्रवेश किया । श्रीकृष्ण को देखने के लिये नगर - रमणियाँ अपने-अपने सभी कामों को छोड़कर त्वरापूर्वक प्रत्येक सड़क और गली में आ - आकर एकत्र हो गयीं । कुछ रमणियाँ आधा ही श्रृंगार किये हुए थीं कि इसी बीच भगवान् के नगर में आने का समाचार सुनकर वे उन्हें देखने के लिए चल पड़ीं । उनकी साड़ी खिसकी जा रही थी जिसे संभालने के लिये वे अपने हाथों से नीवी पकड़े हुए थीं । शीघ्रता के कारण किसी रमणी ने मुक्तामाला के स्थान पर करधनी पहन ली थी, किसी ने केशों पर कान के आभूषण पहन लिये थे, किसी ने ओढ़ने के दुपट्टे को पहनकर पहनने की साड़ी ओढ़ली थी । कोई सुन्दरी आधे रँगे हुए गीले पैरों से ही चल पड़ी, जिससे पृथ्वी पर उसके पैरों के गीले महावर के चिह्न अंकित हो गये थे । कोई रमणी सुवर्ण की सीढ़ियों पर चढ़ते समय झनझनाते हुए नूपुरों को बजाती हुई ऊँची अँटारी के ऊपर चढ़ गयीं । अपनी ऊँची अँटारी पर चढ़ी हुई किसी सुन्दरी की साड़ी का आँचल वायु के वेग से उड़ रहा था, इससे ऐसा प्रतीत हो रहा था मानों वह इन्द्रप्रस्थ नगरी भगवान् श्रीकृष्ण के शुभाग के उपलक्ष में सजायी गयी पताका से सुशोभित हो रही हो । इस प्रकार नगर प्रवेश के अनन्तर उन्होंने जलसिंचित और धूलिरहित मार्गों को पार किया । तत्पश्चात् वे सभामण्डप में शीघ्र ही पहुँच गये । विभिन्न प्रकार की मणियों से जड़ा हुआ सभा मण्डप अत्यन्त सुन्दर था । उस सभाभवन में कमलिनी के नीचे जल ऐसा छिपा हुआ था पर स्थल की भ्रान्ति हो जाती थी । कहीं-कहीं पर उसी भवन में आगन्तुक जल के भ्रम दूर से ही अपना अधोवस्त्र ऊपर उठा लेते थे । सभामण्डप के सम्मुख आकर श्रीकृष्ण और युधिष्ठिर रथ से नीचे उतर पड़े । सभा भवन का निरीक्षण करने के पश्चात् युधिष्ठिर और श्रीकृष्ण विशाल सिंहासन पर एक साथ बैठ गये । नर्तकियाँ आकर उत्तमोत्तम वाद्यों के स्वर के साथ नवीन-नवीन गीतों को मधुर स्वर से गाती हुई नृत्य करने लगीं । और वे दोनों बैठे-बैठे संभाषण करते रहे ।
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चतुर्दश सर्ग
{ मीमांसा और कर्मकाण्ड संबन्धी - ज्ञान के प्रकाश में राजसूय यज्ञ के वर्णन के साथ-साथ श्रीकृष्ण भगवान् का विधिवत् पूजा - सत्कार का वर्णन इसमें किया गया है। } सिंहासनारूढ भगवान् श्रीकृष्ण से युधिष्ठिर ने नम्र निवेदन किया, - हे भगवन् ! मैं यज्ञ करना चाहता हूँ, अतः उसके लिए आप अनुज्ञा प्रदान कर मुझे अनुगृहीत करें । क्योंकि मूल में आप ही को प्राप्त करके ही मैंने धर्ममय वृक्ष का पद प्राप्त किया है, अर्थात् आपके ही कारण मैं धर्मराज कहलाता हूँ । अब आपके समीप होने से मेरा यह