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प्रथमः सर्गः
वायदण्ड' इत्यमरः । तस्य सहकृत्वरी सहकारिणी 'सहे चेति करोतेः क्वनिप्प्रत्ययः । 'वनो र चेति डोप रश्च । तस्य नलस्य भटानां सैनिकानां यद्वा स नल एव मट: वीरः तस्य चातुरी चतुरता नैपुण्यमिति यावत् एव तुरी वयनसाधनं वस्तुविशेष इत्यर्थः । 'माकु' इति प्रसिद्धा, रण एव अङ्गनं चत्वरं तस्मिन् सितांशुवर्णः शुभ्ररित्यर्थः, तस्य नलस्य गुणः शौर्यादिभिः तन्तुभिश्च दिश एव अङ्गनाः तासाम् अङ्गाभरणम् अङ्गभूषणम् । 'अङ्गावरणमिति पाठे अङ्गाच्छादनं बहु यश एव पटः वसनं तं वयति स्म ततान । साङ्गरूपकमलङ्कारः । संग्रामे तथा नैपुण्यमनेन प्रकटितं यया तेन सर्वा दियो यशसा प्रपूरिता इति भावः ।। १२॥ ___ अन्वयः-महासिवेम्न: सहकृत्वरी तद्भटचातुरीतुरी सितांशुवर्ण; तद्गुणः रणाङ्गणो बहुम् दिगङ्गनाङ्गाभरणम् यशः पटं वयति स्म।
हिन्दी--महान् कृपाण रूप वयन काष्ठ ( बुनने का लकड़ी का बना यंत्रविशेष ) की सहकारिणी उस नल योद्धा ( अथवा उस नल के सैनिकों ) की चतुरता रूपी तुरी (बुनने का दूसरा यंत्र, जिसमें बाने का सूत भरा जाता है अथवा बुनकरों की कूची ) चंद्रमा के समान शुभ्रवर्ण के उस ( नल ) के गुण ( शौर्य, औदार्य आदि ) रूप गुणों (सूत के धागों) से रणभूमि में दिक्. सुन्दरियों को सोहने वाला प्रचुर यश रूप वस्त्र बुना करती थी।
टिप्पणी -भावार्थ यह है कि महान् शूर और पराक्रमी राजा नल विशिष्ट कृपाण प्रयोग कर्ता था, तलवार चलाने की कला द्वारा उसने अभी सभी शत्रुओं को चतुर्दिक परास्त कर दिया था और सब ओर उसकी कीर्ति का विस्तार हो गया था।
बुनकर के वयनयंत्र तुरी से नल की 'चातरीतुरी' विशिष्ट है, क्योंकि यह अनेक वस्त्र एक साथ बुनती है, अतः नारायण पंडित के अनुसार यहाँ व्यतिरेक अलंकार है । 'गुण' शब्द यहाँ श्लिष्ट है और 'महासि' में 'वेय' 'चातुरी' में 'तुरी' और 'यश' में 'पट' का रूपारोप है, अतः साहित्यविद्याधरी के अनुसार यहाँ श्लेष और रूपक है ॥ १२ ॥
प्रतीपभूपैरिव किं ततो भिया विरुद्धधर्मैरपि भेत्तृतोज्झिता। अमित्रजिन्मित्रजिदोजसा स यद्विचारदृक्चारदृगप्यवर्तत ॥ १३ ॥ २ न.