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प्रथमः सर्गः किमुत अन्य इति कैमुत्यन्यायादर्थान्तरापत्त्या अर्थापत्तिर्लङ्कारः अधर्मोऽपि धार्मिक इति विरोधश्चेत्यनयोः संसृष्टिः ॥ ७ ॥
अन्वयः-अमुना चतुभिः पदैः सुकृते स्थिरीकृते कृते के न तपः प्रपेदिरे यत कृशः अधर्मः अपि एकाङ्घिनिष्ठया भुवं स्पृशन् तपस्विताम् दधौ ॥
हिन्दी-इस ( नल ) के द्वारा चारों पैरों से सुकृत-धर्मके निश्चल किये जाने पर कृतयुग में कौन तपस्यारत न हो गये ( अपितु सब हो गये ), क्योंकि दुर्बल अधर्म भी एक पैर पर खड़ा धरती को छूता तपस्या करने लगा।
टिप्पणी-राजा नल को त्रेता में उत्पन्न माना जाता है, उसने अपने पुण्य से त्रेता में भी धर्म की पूर्ण स्थापना करके सतयुग ला दिया था, जिसमें धर्म चारों पैरों से विचरण करता है और अधर्म एक पैर से, सो जब अधर्म भी धरती पर एक पैर से खड़ा हो तपस्वी हो गया तो और कौन तपस्वी न हो जाता । इस प्रकार राजा नल का पूर्णधर्मात्मत्व सिद्ध किया गया है । धर्म के चार चरण हैं-सत्य, अस्तेय, शम और दम अथवा तप, दान, यज्ञ और ज्ञान । नल के राज्य में सर्वत्र यही आचार धर्म था। ___ नल के शासन में अधर्म भी धर्माचारी हो गया तो अन्य कौन न हो जाता यह 'अर्थापत्ति' है और अधर्म भी धर्म हो गया यह विरोध, अतः अर्थापत्तिविरोध की संसृष्टि है । साहित्य विद्याधरी के अनुसार अधर्म का धर्मी हो जाना विरोध है, जिसके परिहार से 'विरोधामास है' और सव के तपोनिष्ठ हो जाने का 'अनुमान' है । शब्दालंकार अनुप्रास है।
यदस्य यात्रासु बलोद्धतं रजः स्फुरत्प्रतापानलधूममञ्जिम। तदेव गत्वा पतितं सुधाम्बुधौ दधाति पङ्कीभवदतां विधौ ॥ ८॥
जीवातु-अथास्य सप्तभिः प्रतापं वर्णयति-यदित्यादिभिः । अस्य नलस्य यात्रासु जैत्रयानेषु बलोद्धतं सैन्योरिक्षप्तं स्फुरतः ज्वलतः प्रतापानलस्य यो धूमः तस्येव मञ्जिमा मनोहारित्वं यस्य तथोक्तं 'सप्तम्युपमाने' त्यादिना बहुव्रीहिः । मञ्जशब्दादिमनिच्प्रत्ययः । यत् रजः धूलिः, तदेव गत्वा उत्क्षेपवेगादिति भावः । सुधाम्बुधौ क्षीरनिधौ पवितम्, अतएव पङ्कीभवत् सत् विधौ चन्द्रे तद्वासिनीति