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नेपवमहाकाव्यम्
राशिरिति कोतिमण्डले च सितच्छत्रित्वरूपस्यारोपात् रूपकं कथायाश्च सुधापेक्षया उत्कर्षात् व्यतिरेकश्चेत्यनयोः संसृष्टिः । तदुक्तं दर्पणे 'रूपकं रूपितारोपाद् विपये तिरपह्नवे' इति । "आधिक्यमुपमेयस्योपमानान्न्यूनताऽथवा । व्यतिरेक" इति मियोऽक्षयतेषां स्थितिः संसृष्टिरुच्यते इति च । अस्मिन् सर्ग वंशस्थं वृत्तं, 'जतो तु वसस्थमुदीरितं जरावि' ति तल्लक्षणात् ॥ १ ।।
अन्वयः-यस्य क्षितिरक्षिणः कथां निपीय वुधाः सुधाम् अपि तथा न आद्रियन्ते सितच्छत्रितकीतिमण्डल: महसां राशिः महोज्ज्वलः सः नलः आसीत् ।
हिन्दी-जिस पृथ्वीपालक की कथा का पान करके विद्वज्जन अमृत का भी वैसा आदर नहीं करते, ऐसा ( अपने ) श्वेत छत्र ( आतपत्र ) के समान यशोमंडल से युक्त, उत्सवों से देदीप्यमान, तेजोराशि राजा नल था।
टिप्पणी-'नैषधीयचरित' महाकाव्य के रचयिता महाकवि श्रीहर्ष ने विघ्नविनाश के निमित्त काव्य के नायक राजा नल की कथा-रूप मंगलकारिणी वस्तु का इस श्लोक द्वारा निर्देश किया है,--"आशीःकथन" और 'नमोवाद' के अनुरूप ही कथावस्तु का निर्देश भी मंगलविधायक होता है। राजा नल की कथा अमृत से भी अधिक सरस है, कवि का यह भाव है। 'बुध' शब्द का अर्थ 'देवता' भी है, अतः यह भी भाव है कि सदा सुधापान करने वाले देवता भी राजा नल की कथा का आस्वादन कर अमृत को पहिले जैसा आदर नहीं देते। 'क्षितिरक्षिणः' को प्रथमा-बहुवचन मानकर यह अर्थ भी हो जाता है कि अन्य धरती के पालक राजा यज्ञादि द्वारा प्राप्त अमृत को भी नल-कथा का आस्वादन कर भूल जाते हैं । 'क्षितिरक्षिणः' का एक अर्थ फण पर धरती को धारने वाले शेप-क्षकादि नाग भी है और 'सुधा' का अर्थ 'भुजंग-भोजन' भी। इससे भाव यह हुआ कि पातालवासी नागादि भी नल-कथा में उतनी ही रुचि रखते हैं, जितनी कि पृथ्वीवासी बुधजन और स्वर्ग में बसने वाले देवता। भावार्थ यह कि नल का यश त्रिलोकी में ख्यात है । 'सुधाम् + अपि' का खण्ड करके 'नषधीयप्रकाश' व्याख्याकार नारायण पंडित 'अपि' का अर्थ 'चन्द्रमा में' करके यह अर्थ भी करते हैं कि देवगण 'सुधाजलधारी' चंद्र को भी राजा नल के समान नहीं समझते।