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'नैषधीयचरित' (२।१८-४३ ) में उसके रूप-गुणों का विस्तार से वर्णन किया गया है और उस विवरण के पश्चात् हंस-वाणी में यह बताया गया है। कि दमयन्ती नल के विना शोभा न पासकेगी और नल का यह रूप उसके विना निष्फल है । ( २।४४-४५ ) । इस प्रकार नल-दमयन्ती को परस्परानुफूलता बनायी गयी। नल नरश्रेष्ठ है और दमयन्ती त्रैलोक्यसुन्दरी है
"प्रियं' प्रियां च विजगज्जयथियौ लिखाघिलीलाग्रहभित्तिकावापि । इति स्म सा कारुतरेण लेखितं नलस्य च स्वस्य च सख्यमीक्षते ॥
(नै० ११३८) वह नल के सदृश है-'सदृशी तव शूर सा' (२।३९)। हंस दूत ने इसी सब का ध्यान रखते हुए कहा था
धन्यासि वैदमि गुणेरुदारयंया समाकृष्यत नैषधोऽपि । इतः स्तुतिः का खल चन्द्रिका या यदब्धिमप्युत्तरलीकरोति ॥ (३।११६)।
वह विदर्भकुमारी धन्य है, जिसने धैर्यधन निपघराज को भी आकृष्ट कर लिया। जैसे चाँदनी गंभीर सागर को भी उत्तरल कर देती है, वैसे ही दमयन्ती ने नल को उत्तरल कर दिया। इससे अधिक उसके विषय में और कहा ही क्या जा सकता है ? ___अनेक स्थलों पर 'नैषध' में उसके विविध स्वरूपो का तनुश्री का तथा, अङ्गसुषमा का विशद चित्रण हुआ है, जिससे वह सर्वथा श्रेष्ठ आदर्श नायिका. प्रमाणित होती है । आरम्भ में नलमुग्धा अनुरागिणी नायिका है। उसका नल के प्रति अनुराग इतना इट है कि विश्व में नल के आगे वह किसी को मान्यता नहीं देती, न किसी राजा-सम्राट् को, न इंद्रादि देवताओं को । उसका चित्त तो केवल नल की कामना करता है-'चेतो नलं कामयते मदीयम् ।' स्वर्णपुरी लंका की भी उसे कामना नहीं है-'चेतो न लङ्कामयते मदीयम् ।' यदि नल नहीं तो फिर 'अनल' (अग्नि) में जल मरना ही है-'चेतोऽनलं कामयते मदीयम् ।' विवाह होने के बाद उसका अनुराग, पूर्णता को प्राप्त हो जाता है और वह नरराज नल को 'तृतीय-पुरुषार्थवारिधि' में तरानेवाली 'तरी' ( नौका ) बन जाती है। और फिर 'दिवानिश' आनन्द-उल्लास-विलास का सागर उमड़ पड़ता है। हेममयी भूमि से दमकते 'नेकवर्णमणिकोटिकुट्टिमसौधः भूधर' में