________________
( ४२ )
उद्घाटन होकर उत्तरोत्तर विकास का तारतम्य दृष्टिगोचर हो जाता है । दमयन्ती के पिता भीम दमयन्ती-रवयंवर का निश्चय करते हैं। पञ्चम से नवम सर्ग का कथानक 'गर्भसंघि' है। भरतमुनि के अनुसार जहाँ मुख तथा प्रतिमुख सधि की उत्पत्ति और उद्घाटन दशाओं से आविष्ट बीज का उद्भेद अथ वा प्राप्ति या अप्राप्ति और पुन रन्वेषण होता है, वह गर्भसंधि है । ( नाट्य. शास्त्र १९।४१)। अभिनवगुप्त के अनुसार उद्भेद का अर्थ है 'फलजनाभिम खता' । प्राप्ति नायकविषया होती है और अप्राप्ठि प्रतिनायकविषया। प्राप्ति, अप्राप्ति और अन्वेषण- इन्हीं वार-वार होती रहती अवस्थाओं से युक्त गर्भसन्धि होती है। इन सर्गों में नल देवदूत हो दमयन्ती से मिलते हैं। और स्वयंवर में संमिलित होने का वचन देते हैं। इसमें प्राप्ति है नल-विषया, अप्राप्ति है देवादिप्रतिनायक विषया और अन्वेषण है वह नल का स्वयंवर में संमिलित होने का वचन, जिससे फल-प्राप्ति की आशा बंधती है। विमर्शसंघि का प्रसंग आता है चतुर्दश सर्ग के समाप्त होते-होते, जब देवगण प्रकट हो नलदमयन्ती को आशीर्वाद और वर देते हैं । इसमें नल-दमयन्ती-अनुरागरूप बीज पुनः प्रकट होता है । इस संधि में विघ्नों द्वारा बीजार्थ बाधित होता है, विघ्नहेतुओं का निबंधन होता है, फल-प्राति में संदेह भी होता है, किन्तु नियतफलाप्ति अवस्था व्याप्त रहती है । देवगण विघ्न हैं, पर उनका उपशमन हो, नल-दमयन्ती-परिणय की आशा नियत हो जाती है। पंचदश-षोडश सर्गों में निर्वहण' संधि है । वरमाला पड़ती है, विवाह हो जाता है और आगे के सर्गो में संजात नल-दमयन्ती मिलन की पूर्ण भूमिका बन जाती है। पूर्वकथित चारों संधियों के प्रारम्भादि अर्थों का समानयन हो जाता है, जैसा कि अभिनवगुप्त ने बताया है कि क्रम से उत्पत्ति, उद्घाटन, उद्भेद और गर्मनिर्भेद-रूप बीज विकारों से युक्त, नानाविध सुख-दुःखात्मक हास, शोक, क्रोधादि भावों से चमत्कारास्पद उत्कृष्टता प्राप्त मुखादि चारों संधियों के प्रारम्भादि अर्थों का एक अर्थराशि में समानयन-अर्थात् फलनिष्पत्ति में भोजन निर्वहण है, जो फलयौगावस्था से व्याध रहता है । ( ना०शा० १९१४२ पर अभिनव भारती)। नायक नल का 'कार्य' है दमयन्ती प्राप्ति, वह यहाँ सम्पन्न हो जाता है।