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द्वितीयः सर्गः
हिन्दी -- उपवनप्रदेश में सखियों के साथ क्रीडारता भीमपुत्री को देख पक्षी ( हंस ) की ऐसी बुद्धि बनी कि घृताचीप्रभृति सहचरियों के साथ उस सुविख्यात इंद्राणी शची को इस प्रकार के प्रचुर आनंद का नन्दन उपवन की क्रीडा में भी अनुभव नहीं होता ।
टिप्पणी- दमयंती की शची, उसकी सखियों की घृताची आदि अप्स - राओं और वाटिका की नंदनकानन से तुलना करते हुए दमयंती के क्रीडासुख की शची के केलिसुख से श्रेष्ठता बताकर एक प्रकार से दमयंती- परिवेष की शची परिवेष की अपेक्षा श्र ेष्ठता द्योतित की गयी है । मल्लिनाथ ने इसी आधार पर यहाँ व्यतिरेक अलंकार माना है, यों विद्याधर ने भ्रांतिमान का निर्देश किया है ।। १०९ ॥
श्रीहर्षः कविराजराजिमुकुटालङ्कारहीरस्सुतं श्रीहीरस्सुषुवे जितेन्द्रियचयं मामल्लदेवी च यम् । द्वैतीयोकतया मितोऽयमगमत्तस्य प्रबन्धे महा
काव्ये चारुणि नैषधीयचरिते सर्गे निसर्गोज्ज्वलः ॥ ११० ॥ व्याख्यातम् । द्वितीय एव द्वैतीयीकः, इतीकक् द्वैतीयीकतया मितो द्वितीयत्वेन
जीवातु - श्रीहर्षमित्यादि । 'द्वितीयादीकक् स्वार्थे वा वक्तव्य' गणितः द्वितीय इत्यर्थः, अगमत् ॥ ११० ॥
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इति 'मल्लिनाथ सूरिविरचितायां 'जीवातु' समाख्यायां नैषघटीकायां द्वितीयः सर्गः समाप्तः ॥ २ ॥
अन्वयः -- ( प्रथम सर्ग के समान ) कविराजराजिमुकुटालङ्कारहीरः " सुषुवे, तस्य चारुणि प्रबन्धे महाकाव्ये नैषधीयचरिते अयं द्वतीयीकतया मितः निसर्गोज्ज्वलः सर्गः अगमत् ।
हिन्दी – कविराजसमूह श्रीहर्ष के चारु प्रबन्ध महाकाव्य नैषधीय - चरित में यह द्वितीय रूप में परिगणित स्वभावसुन्दर - प्रकृतिचित्रों से श्रृङ्गारित सर्ग परिणति को प्राप्त हुआ ॥ ११० ॥
द्वितीय सर्ग ससाप्त
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