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नंषधमहाकाव्यम्
तरूणाम् आलवाल: विफलितजलसेकप्रक्रियागौरवेण भैमीवनेन स हृतचित्तो व्यरचि।
हिन्दी-वहाँ ( नगरी में ) चंद्रकांतमणियों से बने अतएव चंद्रकिरणों के सम्पर्क से पसीजने के कारण अपने ही जल-प्रवाह से परिपूर्ण वृक्षों के आलवालों ( जलाधारों ) द्वारा जिसमें जल से सींचने की क्रिया का भार व्यर्थ है, ऐसे भीमसुता ( दमयन्ती) के उपवन पर वह ( हंस ) आकृष्टचित्त हो गया।
टिप्पणी-दमयन्ती की वाटिका में वृक्षों के आलवाल ( थांवले ) चंद्रकांत मणि से बनाये गये थे, चंद्रमा निकलता, मणियां पसीजतीं और जल से आलवाल पूर्ण हो जाते । अपने आप ही सिंचाई हो जाती थी। बड़ी ही विचित्र और मनोरम थी वह वाटिका कि मानव नहीं, पक्षी का भी चित्त उसमें रम गया। मल्लिनाथ ने यहाँ अतिशयोक्ति का निर्देश किया है और विद्याधर ने अतिशयोक्ति और उदात्त का। इसमें और अगले तीन (१०७, १०८. १०९ वें) श्लोकों में भी मालिनी छंद है, जिसके प्रत्येक चरण में दो नगण (m), एक मगण (sss), दो यगण (Iss) क्रम से पंद्रह वणं होते हैं, आठ और सात पर यति होती है ॥ १०६ ॥
अथ कनकपतत्रस्तत्र तां राजपूत्रीं सदसि सदृशभासां विस्फुरन्ती सखीनाम् । उडुपरिषदि मध्यस्थायिशीतांशुलेखाsनुकरणपटुलक्ष्मीमक्षिलक्षीचकार ॥ १०७ ।। जीवातु-अथेति । अथ दर्शनानन्तरं कनकपतत्रः स्वर्णपक्षी तत्र वने सदृश भासामात्मतुल्यलावण्यानां सखीनां सदसि विस्फुरन्तीं 'स्फुरतिस्फुलत्योनिनिविभ्य' इति पत्वम् । उड़परिषदि तारकासमाजे मध्यस्थायिन्याः शीतांशुलेखायाश्चन्द्रकलायाः अनुकरणे पटुः समर्था लक्ष्मीः शोभा यस्याः सा इत्युपमालङ्कारः । तां राजपुत्रीम् अक्षिलक्षीचकार अद्राक्षीदित्यर्थः ॥ १०७ ।। ____ अन्वयः-अथ कनकपतत्रः तत्र सदृशभासां सखीनां सदसि विस्फुरन्तीम् उडुपरिषदि मध्यस्थायिशीतांशुलेखानुकरणपटुलक्ष्मीम् अक्षिलक्षीचकार ।