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बाईस श्लोक हैं । केवल तेरहवाँ पन्द्रहवीं और उन्नीसवाँ सर्ग ऐसा है, जिनकी श्लोक-संख्या सौ से कम हैं । संपूर्ण सर्गों में १४५+११० + १३६ + १२३+ १३८+११३+११०+१०९+१६०+१३७+१३०+११३+५६+ १०१+९३+१३१÷२२२+१५४+ ६८ + १६२ + १६४+१५५ के क्रम से संपूर्ण काव्य में दो हजार, आठसो, तीस श्लोक ( २,८३० ) हैं । विभिन्न संस्करणों में इस गणना में अन्तर है ।
नैषधीयचरित की कथावस्तु और उसका आधार
नलदमयन्ती की कहानी भारतीय जीवन की प्रसिद्ध कथा है । यह केवल 'सुबावधीरणी' ही नहीं है, 'कलिनाशिनी' भी है- 'कर्कोटकस्य नागस्य दमयन्त्या नलस्य च । ऋतुपर्णस्य राजर्षेः कीर्त्तनं कलिनाशनम् ॥' माना जाता है कि यह त्रेतायुग की कथा है । निषधराज नल का उल्लेख वैदिक साहित्य में भी है और यह अनेक पुराणों में भी पायी जाती है - मत्स्य, स्कन्द, वायु, पद्म, अग्नि आदि में और 'महाभारत' में भी । सोमदेव भट्ट के 'कथासरित्सागर' में भी यह कथा है | समीक्षा करने से यह प्रतीति होती हैं कि श्रीहर्ष ने स्वकाव्य रचना मुख्यतया 'महाभारत' की कथा को आधार बनाया है । इस प्रकार यह कहना समीचीन लगता है कि 'नैषधीयचरित' का उपजीव्य महाभारत का नलोपाख्यान है ।'
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महाभारत के वनपर्व में 'नलोपाख्यान' उनतीस अध्यायों ( ५८- ७८) में है । इस आख्यान का उद्देश्य है धैर्यं धारण को प्रेरणा देना । घोर विपत्ति में भी जो धैर्यधारण कर विपत्ति दूर करने का अविचलित उद्योग करते हैं, 'विपदि धेयंम्' जिनका विश्वास है, वे ही महात्मा हैं। नल ने अनेक विपदाएँ झेलकर अन्त में पुनः अपना राज्य प्राप्त किया और 'पुण्य श्लोक' कहलाये । पांडवों पर भी ऐसी ही विपदा थी । कौरव दुर्योधन से द्यूत-कपट में सर्वस्व गंवाकर वे द्वैतवन में संकट के दिन काट रहे थे। तृतीय पांडव अर्जुन दिव्यास्त्रप्राप्ति के निमित्त दैवी सहायता के उद्योग में शेष पांडवों से दूर थे । दुःखी युधिष्ठिर किंकर्तव्यविमूढ थे कि महर्षि बृहदश्व वहाँ पहुँचे और उन्हें धीरज बँधाने के लिए 'नलोपाख्यान' सुनाया । संक्षेप में वीरसेन सुत निषधाधिपति नल और विदर्भ राजकुमारी दमयन्ती का परस्पर आकृष्ट होना, विरही नल