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नैषषमहाकाव्यम्
रूपक और लिंगसाम्य से नायक-नायिका-व्यवहार का समारोप मान कर समासोक्ति के अंगांगिभाव संकर का उल्लेख किया है ॥ ८६ ।।
अनलै: परिवेषमेत्य या ज्वलदर्कोपलवप्रजन्मभिः । उदयं लयमन्तरा रवेरवहद्बाणपुरीपराद्धय ताम् ।। ८७ ॥
जीवातु-अनलैरिति । या नगरी रवेरुदयं लयमस्तमयं चान्तरा तयोमध्यकाल इत्यर्थः । 'अन्तरान्तरेण युक्त' इति द्वितीया। ज्वलतामर्काशुसम्पर्कात प्रज्वलतामर्कोपलानां वप्राज्जन्म येषान्तः सूर्यकान्तः प्राकारजन्यः अनलः परिवेषमेत्य परिवेष्टनं प्राप्य बाणपुर्याः बाणासुरनगर्याः शोणितपुरस्य पराद्धर्यतां श्रेष्ठतामवहत् । अत्रान्यधर्मस्यान्येन सम्बन्धासंभवात्तादृशीं परार्यतामिति सादृश्याक्षेपानिदर्शनालङ्कारः॥ ८७ ॥
अन्वयः-या रवेः उदयं लयम् अन्तरा ज्वलदर्कोपलवप्रजन्मभिः अनलः परिवेषम् एत्य बाणपुरीपरायताम् अवहत् ।
हिन्दी-जो नगरी सूर्य के उदय और अस्त के मध्य देदीप्यमान सूर्यकांत मणि के प्राकारों से उत्पन्न अग्निपुंज से परिविष्ट ( आवृत ) हो बाणासुरनगरी ( शोणितपुरी ) की श्रेष्ठता को धारण कर लेती थी।
टिप्पणी-शिव कृपा से शिवभक्त बाणासुर की नगरी शोणितपुरी चारों ओर अग्नि से परिविष्ट रहती थो, कुडिननगरी की भी वसी श्रेष्ठता यहाँ प्रमाणित की गयी है। कुडिननगरी के प्राकार में सूर्यकांत मणियों भी पर्याप्त थों, सूर्योदयास्तकाल में ऊंचे प्राकार की वे मणियाँ दमकने लगती थीं, जिससे पुरी परिविष्ट हो, अग्निपरिविष्टा बाण-नगरी-सी लगती थी। मल्लिनाथ के अनुसार अन्य के धर्म का अन्य से संबंध-निरूपण होने से यहाँ निदर्शनालकार है, विद्याधर के अनुसार उदात्त भी है ॥ ८७ ॥
बहुकम्बुमणिर्वराटिकागणनाटत्करकर्कटोत्करः । हिमबालुकयाऽच्छवालुकः पटु दध्वान यदापणार्णवः ।। ८८ ॥
जीवातु-वह्विति । बहवः कम्बवः शङ्खा मणयश्च यस्मिन् सः वराटिका. गणनाय कपदिकासंख्यानाय अटन्तः तिर्यक् प्रचरन्तः कराः पाणय एव कर्क