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नैषधमहाकाव्यम्
___ जीवातु-प्रतीति । पन्थानं गच्छन्तीति पथिकाः तेषामा ह्वानं ददाति तथोक्तमाह्वकम् अध्वानं गच्छतामाकर्षकमित्यर्थः । सक्तूनां सौरभं सुगन्धो यस्मिन् प्रतिघट्टपथे प्रत्यापणपथे । 'अव्ययं विभक्ती'त्यादिना वीप्सायामव्ययीभावः । 'तृतीयासप्तम्योर्बहुल'मिति सप्तम्या अमभावः । घरट्टाः गोधूमचूर्णग्रावाणः तज्जात् यस्या नगर्याः उत्थितात् कलहात् घर्घरस्वनः निर्झरस्वरः कण्ठध्वनिः घनान् मेघान् अधुनापि नोज्झति न त्यजति । सर्वदा सर्वहट्टेषु घरट्टा मेघवानं ध्वनन्तीति भावः । अत्र घनानां घरट्टकलहासम्वन्धेऽपि सम्बन्धोक्तेरतिशयोक्तिः । तथा च घर्धरस्वनस्य तद्धेतुकत्वोत्प्रेक्षा, व्यञ्जकाप्रयोगाद् गम्योत्प्रेक्षेति सङ्करः ।। ८५ ॥ ____ अन्वयः--प्रतिहट्टपथे पथिका ह्वानदसक्तुसौरभैः घरट्टजात् यदुत्थितात् कलहात् घर्घरस्वरः अधुना अपि धनान् न उज्झति ।
हिन्दी-प्रत्येक हाट के मार्ग में पथिक का आह्वान करने वाले ( अपनी ओर खींचने-वाले ) सतुओं की सुगन्ध उड़ाती आटा-चक्कियों के संघट्टन से जिस नगरी में उठा 'घर्घर' शब्द आज भी बादलों को नहीं छोड़ता।
टिप्पणी-भाव यह कि प्रत्येक हाट-बाजार में सत्तुओं की विपुलता है, सत्तू आदि पीसती चक्कियों से उड़ता सक्तु-सुगन्ध पथिको को आकृष्ट करता है । चक्कियों के पत्थरों की कलह-रगड़ से जो 'घर्घर' शब्द होता है, वही मानों बादलों में समा गया है, अन्यथा बादलों को गड़गड़ाहट कहां से मिलती ? यह भी माना गया है कि कुंडिनपुरी में बने सत्तू इतने सुगन्धि और स्वादिष्ट होते थे कि पथिक सक्तु भोजन के स्वाद में वहाँ रुक जाया करते थे और मेघ पथिकों को घर जाने की प्रेरणा दिया करते थे, यही 'घरट्ट मेघकलह' का कारण बराबर बना रहता था। मेघ पीडित करते हैं, सक्तु-परिमलो से घरट्ट जिलाते हैं। घरट्ट पथिकों को आह्वान देते हैं, मेघ खंडन करते हैं। घरट्ट-मेघ कलह करते 'घर्घराते' रहते हैं। हाट-बाजारों में बराबर ऐसा कलह रहा करता है, ग्राहकों को एक दुकानदार पुकारता है, दूसरा उसका प्रतिवाद करता है, दोनों झगड़ते रहते हैं। कुडिनपुरी का बाज़ार ऐसा ही व्यापार-संकुल हाट था। विद्याधर ने यहाँ अध्यवसाय के सिद्ध होने के आधार