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नषघमहाकाव्यम्
हिन्दो-जिस ( नगरी ) के प्रासादों पर फहराती चंचल पताकाओं के वस्त्र-प्रांत-रूप डंडों के प्रहार आकाश मंडल में दौड़ते सूर्य के घोड़ों को प्रेरणा देते सारथि अरुण को विश्राम दिया करते थे।
टिप्पणी-कुडिनपुरी के उच्च प्रासादों पर जो पताकाएं फहरती थीं, वे सूर्यास्वों के शरीर पर लग-लग कर हांकने के दंड का काम किया करती थों, जिससे सूर्य-सारथि को विश्राम मिल जाता था। मल्लिनाथ के अनुसार असंबंध में संबंध कथन के कारण अतिशयोक्ति, जिससे प्रासादों की अत्युच्चता व्यंजित होती है, अतः अलंकार द्वारा वस्तुध्वनि । विद्याधर की दृष्टि में अतिशयोक्ति और अनुप्रास ।। ८० ॥
क्षितिगर्भधराम्बरालयैस्तलमध्योपरिपूरिणां पृथक् । जगतां सलु याऽखिलाद्भुताऽजनि सारेनिजचिह्नधारिभिः ।।८।।
जीवात-क्षितीति । तलमध्योपरि बघोमध्योर्ध्वदेशान् पूरयन्तीति तत्पूरिणां पयतां पातालभूमिस्वर्गाणां पृथगसङ्घीणं यानि निजानि प्रतिनियतानि निजविलागि नियन्चपानसक्चन्दनादिलिङ्गानि धारयन्तीति तद्धारिभिः तथोक्तः साररत्कृष्ट : भितिकुहरे घरायां भूपृष्ठे अम्बरे आकाशे च ये आलया गृहाः तैः भूम्यन्तर्व हिः । शिरोगृहरित्यर्थः । या नगरी अखिला कृत्स्ना अद्भुता चित्रा यजमि जाता । 'दीपजने' त्यादिना जनेः कर्तरि लुङ, च्लेश्चिणादेवाः । अत्र क्षितिगर्यादीनां तलमध्योपरि जगत्सु सतां तच्चिह्नानाञ्च यथासंश्यसम्बन्धात् यथासंस्यालका।। एतेन त्रैलोक्यवैभवं गम्यते ॥
अन्वयः--तलमध्योपरिपूरिणां जगतां पृथक् चिह्नधारिभिः सारः क्षितिगर्भधराम्बरालयः या अखिला अमृता अजनि खलु ।
हिन्दी-तल (निम्न प्रदेश पाताल), मध्य ( घरती), उपरि (आकाश). संज्ञक सृष्टियों ( पाताल, पृथ्वी और स्वर्ग ) के पृथक्-पृथक् चिह न धारण करने वाले सार ( श्रेष्ट ) अंशों से निर्मित पाताल, पृथ्वी, आकाश-त्रिलोकी के आवासों से ( युक्त ) जो संपूर्ण नगरी विचित्र ही निर्मित हुई थी।
टिप्पणी-कुंडिनपुरी में त्रिभूमिक-तितल्ले घर थे, तहखाने ( पाताल