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नषधमहाकाव्यम्
थी कि स्नानार्थिनी सुन्दरियों के शरीर से छूटकर जल को मला बनाने वाला अंगराग रात-दिन बावड़ियों में घुला ही रहता था। दुराग्रहवती मानिनी भी निशा काल में जागी रहकर प्रिय की मानमनौअल से प्रसन्न नहीं होती। उपमा और उदात्त अलंकार ।। ७७ ॥
क्षणनीरवया यया निशि श्रितवप्रावलियोगपट्टया !
मणिवेश्ममयं स्म निर्मलं किमपि ज्योतिरवाह्यमीक्ष्यते ।। ७८ ॥ जीवातु--क्षणेति । निशि निशीथे क्षणं नीरवया एकत्र सुप्तजनत्वादन्यत्र ध्यान स्तिमितत्वान्निःशब्दमाश्रितः प्राप्तः वप्रावलिः योगपट्ट इव अन्यत्र वप्रावलिरिव योगपट्टो यथा सा तथोक्ता यया नगर्या मणिवेश्ममयं तद्रूपं निर्मलमवाह्यमन्तर्वति किमपि अवाङ्मनसगोचरं ज्योतिः प्रभा आत्मज्योतिश्च ईक्ष्यते सेव्यते स्म । अत्र प्रस्तुतनगरी विशेषसाम्यादप्रस्तुतयोगिनीप्रतीतेः समासोक्तिः।
अन्वयः-निशि क्षणनीरवया श्रितवप्रावलियोगपट्टया यथा मणिवेश्ममयं निर्मलम् किमपि अबाह्य ज्योतिः ईक्ष्यते स्म ।
हिन्दी-मध्य रात्रि में क्षण भर को निःशब्द हो प्राकारपंक्तिरूप योगपट्ट का आश्रय ले जिस ( कुंडिनपुरी ) के द्वारा रत्नगृहरूप निर्मल किसी ( अवाङ्मनोविषया) आभ्यंतर ज्योति ( आत्म ज्योति ) का दर्शन किया जाता था।
टिप्पणी-आशय यह है कि दिन भर कर्मसंकुला कोलाहल से पूर्ण कुडिन पुरी में आधी रात को जाकर कहीं कुछ शांति-निःशब्दता आती थी। इसकी उद्भावना निःशब्द हो, योगपट्ट का सहारा ले आत्मज्योति का साक्षात् करती ध्यानमग्ना योगिनी की समता द्वारा की गयी है। मल्लिनाथ के अनुसार यहाँ समासोक्ति है, क्योंकि प्रस्तुत नगरी के साम्य द्वारा अप्रस्तुत योगिनी की प्रतीति होती है। विद्याधर के अनुसार उदात्त अलंकार है ।। ७८ ॥
विललास जलाशयोदरे क्वचन द्यौरनुबिम्बितेव या।
परिखाकपटस्फुटस्फुरत्प्रतिबिम्बानवलम्बिताम्बुनि ॥७९॥ जीवातु-विललासेति । या नगरी परिखायाः कपटेन व्याजेन स्फुटं परितो व्यक्तं तथा स्फुरता प्रतिबिम्बेनावलम्बितं मध्ये चागृह्यमाणं चाम्बु