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नैषधमहाकाव्यम् अथ भीमभुजेन पालिता नगरी मञ्जुरसौ धराजिता । पतगस्य जगाम दृक्पथं हरशैलोपमसौधराजिता ॥ ७३ ॥ जीवातु-अथेति । धराजिता भूमिजयिना 'सत्सूद्विपे'त्या दिना क्विपि तुक भीमस्य भीमभूपस्य भुजेन पालिता हिमशलोपमैः सौधः राजिता मजुमनोज्ञा असौ पूर्वोक्ता नगरी कुण्डिनपुरी पतगस्य हंसस्य दृक्पथं जगाम, स तां ददर्शेत्यर्थः । अत्र यमकाख्यानुप्रासस्य हिमशैलोपमेति, उपमायाश्च संसृष्टिः ॥
अन्वयः-अथ धराजिता भोमभुजेन पालिता हरशैलोपमसौघराजिता मञ्जुः असो नगरी पतगस्य दृक्पथं जगाम ।
हिन्दी--तदन्नतर पृथ्वीजयी राजा भीम की भुजा द्वारा रक्षित शिव-पर्वत कैलास सदृश प्रासादों से शोभित वह कुडिनपुरी हंस के दृष्टिपथ को पाप्त हुई ( दीखी)।
टिप्पणी-इस श्लोक से आरम्म करके 'विधुकर""*मीवनेन' (श्लोक संख्या १०६) तक ३४ श्लेकों में कुडिन पुरी का वर्णन है। अंततो गत्वा हंस को कुडिन पुरी दिखायी दी। वह ऊँचे और सफेदी किये-सुधाधवल प्रासादों से युक्त थी, यह द्योतित करने के लिए 'हरशलोपमसौधराजिता' कहा गया । 'भीमभुजेन' का भीमौ शत्रूणां भयजनको भुजो यस्य तेन-विग्रह करके पृथ्वीजयी राजा के शत्रुभयजनक भुजाओं से पालित' अथं भी किया गया है । 'प्रकाश-कार ने 'असौ घराजिता' का 'असोधराजिता' पाठ कल्पित कर 'सौधराजिता-असौधराजिता' में विरोधाभास का उल्लेख किया है । विद्याधर के अनुसार इस श्लोक में समासोपमा और यमक अलंकार हैं तथा मल्लिनाथ की दृष्टि में 'यमकाख्यानुप्रास-उपमा' की संसृष्टि है। चंद्र कलाकार ने विरोधाभास-यमक-अनुप्रासउपमा की संसृष्टि का निर्देश किया है ॥ ७३ ॥
दयितं प्रति यत्र सन्ततं रतिहासा इव रेजिरे भुवः ।
स्फटिकोपलविग्रहा गृहाः शशभृद्भित्तनिरङ्कभित्तयः ॥ ७४ ॥ जोवात-तां वर्णयति-दयितमिति । यत्र नगर्या स्फटिकोपलविग्रहाः स्फटिकमयशरीरा इत्यर्थः। अत एव शशभृद्भित्तनिरङ्कभित्तयः शशाङ्क